दसवां अध्याय
विभूति-चिंतन
54. दुर्जन में भी परमेश्वर का दर्शन
24. सारांश यह कि इस प्रकार इस सारी सृष्टि में‚ विविध रूपों में- पवित्र नदियों के रूप में‚ विशाल पर्वतों के रूप में‚ गंभीर सागर के रूप में‚ वत्सल गोमाता के रूप में‚ उम्दा घोड़े के रूप में‚ सहृदय सिंह के रूप में‚ मधुर कोयल के रूप में‚ सुंदर मोर के रूप में‚ स्वच्छ और एकांतप्रिय सर्प के रूप में‚ पंख फड़फड़ाने वाले कौए के रूप में‚ छटपटाने वाली ज्वालाओं के रूप में‚ प्रशांत तारों के रूप में‚ सर्वत्र परमात्मा भरा हुआ है। आंखों को उसे देखने का अभ्यास कराना है। पहले मोटे और सरल अक्षर‚ फिर बारीक और संयुक्ताक्षर सीखने चाहिए। संयुक्ताक्षर सीखने चाहिए। संयुक्ताक्षर नहीं सीख लेंगे‚ तब तक पढ़ने में प्रगति नहीं हो सकती। संयुक्ताक्षर कदम-कदम पर आयेंगे। दुर्जनों में स्थित परमात्मा को देखना भी सीखना चाहिए। राम समझ में आता है‚ परंतु रावण भी समझ में आना चाहिए। प्रह्लाद जंचता है, परंतु हिरण्यकशिपु भी जंचना चाहिए। वेद में कहा है– नमो नमः स्तेनानां पतये नमो नमः –‘उन डाकुओं के सरदारों को नमस्कारǃ उन क्रूरों को‚ उन हिंसकों को नमस्कारǃ ये ठग‚ ये दुष्ट‚ ये चोर‚ सब ब्रह्म ही हैं। इन सबको नमस्कारǃ’
इसका अर्थ क्या? इसका अर्थ यह कि सरल अक्षर तो सीख गये‚ अब कठिन अक्षरों को भी सीखो। कार्लाइल ने ‘विभूति-पूजा’ नामक एक पुस्तक लिखी है। उसने उसमें नेपोलियन को भी एक विभूति कहा है। यहाँ शुद्ध परमात्मा नहीं है‚ मिश्रण है; परंतु इस परमात्मा को भी चला लेना चाहिए। इसीलिए तुलसीदास जी ने रावण को राम का ‘विरोधी भक्त’ कहा है। हां‚ इस भक्त के रंग-ढंग कुछ भिन्न हैं। आग पर पांव पड़ने पर जलता है‚ सूज जाता है। परंतु सेक करने से सूजन उतर भी जाती है। तेज एक ही‚ पर आविर्भाव भिन्न–भिन्न हैं। राम और रावण में आविर्भाव भिन्न–भिन्न दिखायी दिया‚ तो भी वह है एक ही परमेश्सवर का। स्थूल और सूक्ष्म‚ सरल और मिश्र‚ सरल अक्षर और संयुक्ताक्षर सब सीखो और अंत में यह अनुभव करो कि परमेश्वार से ख़ाली एक भी स्थान नहीं है। अणु-रेणु में भी वही है। चींटी से लेकर ब्रह्मांड तक सर्वत्र परमात्मा ही व्याप्त है। सबकी एक सी चिंता करने वाला कृपालु‚ ज्ञान-मूर्ति‚ वत्सल‚ समर्थ‚ पावन‚ सुंदर परमात्मा चारों ओर सर्वत्र खड़ा है। [1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रविवार‚ 24–4–32
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