गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 113

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दसवां अध्याय
विभूति-चिंतन
53. प्राणी स्थित परमेश्वर

20. ऐसे कितने उदाहरण दूं? मैं तो केवल कल्पना दे रहा हूँ। रामायण का सारा सार इस प्रकार की रमणीय कल्पना में ही है। रामायण में पिता–पुत्रों का प्रेम‚ मां-बेटों का प्रेम‚ भाई-भाई का प्रेम‚ पति-पत्नी का प्रेम‚ सब कुछ है; परंतु मुझे रामायण इस कारण प्रिय नहीं है। मुझे वह इसलिए प्रिय है कि राम की मित्रता वानरों से हुई। आजकल कहते हैं कि वे वानर तो नाग-जाति के थे। इतिहासज्ञों का काम ही है‚ गड़े को उखाड़ना। उनके इस कार्य पर मैं आपत्ति नहीं उठाता‚ लेकिन राम ने यदि असली वानरों से मित्रता की हो‚ तो इसमें असंभव क्या है?

राम का रामत्व‚ रमणीयत्व सचमुच इसी बात में है कि राम और वानर मित्र हो गये। ऐसा ही कृष्ण का और गायों का संबंध है। सारी कृष्ण पूजा का आधार यह कल्पना है। श्रीकृष्ण के किसी चित्र को लीजिए‚ तो आपको इर्द-गिर्द गायें खड़ी मिलेंगी। गोपाल कृष्णǃ गोपाल कृष्णǃ यदि कृष्ण से गायों को अलग कर दें‚ तो फिर कृष्ण में बाकी क्या रहा? राम से यदि वानर हटा दिये‚ तो फिर राम में भी क्या ‘राम’ रहेगा? राम ने वानरों में भी परमात्मा के दर्शन किये और उनके स प्रेम और घनिष्ठता संबंध स्थापित किया। यह है रामायण की कुंजीǃ इस कुंजी को आप छोड़ देंगे’ तो रामायण की मधुरता खो देंगे। पिता-पुत्र, मां-बेटे का प्रेम तो और जगह भी मिल जोयगा‚ परंतु नर-वानर की अन्यत्र न दीखने वाली यह मधुर मैत्री केवल रामायण में ही मिलेगी। वानर में स्थित भगवान को रामायण ने आत्मसात किया। वानरों को देखकर ऋषियों को बड़ा कौतुक होता था। ठेठ रामटेक से लेकर कृष्णा-तट तक जमीन पर पैर न रखते हुए वे वानर एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर कूदते-फांदते और क्रीड़ा करते घूमते थे। ऐसे उस सघन वन को और उसमें क्रीड़ा करने वाले वानरों को देखकर उन सहृदय ऋषियों के मन में कवित्व जाग उठता‚ कौतुक होता। ब्रह्म की आंखें कैसी होती हैं‚ यह बताते हुए उपनिषदों ने बंदरों की आंखों की उपमा दी है। बंदरों की आंखें बड़ी चंचल होती हैं। चारों ओर उनकी निगाह दौड़ती है। ब्रह्म की आंखें ऐसी ही होनी चाहिए। आंखें स्थिर रखने से ईश्वर का काम नहीं चलेगा। हम–आप ध्यानस्थ होकर बैठ सकते हैं‚ परंतु यदि ईश्वर ध्यानस्थ हो जाये‚ तो फिर संसार का क्या हाल होगा? अतः ऋषियों को बंदरों में सब की चिंता रखने वाले ब्रह्म की आंखें दिखायी देती हैं। वानरों में परमात्मा के दर्शन करना सीख लो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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