दसवां अध्याय
विभूति-चिंतन
53. प्राणी स्थित परमेश्वर
17. और वह सिंहǃ बड़ौदा में रहता था। सबेरे–सबेरे ही उसकी गर्जना की गंभीर ध्वनि कानों में पड़ती। उसकी आवाज इतनी गंभीर और उम्दा होती कि हृदय डोलने लगता। मंदिर के गर्भगृह में जैसी आवाज गूंजती है, वैसी ही उसके हृदय–गर्भ की वह गंभीर ध्वनि होती थी। और सिंह की वह धीरोदात्त‚ भव्य‚ सहृदय मुद्रा‚ उसकी वह शाही शान और शाही वैभवǃ वह भव्य सुंदर आयाल‚ मानो चंवर ही उस वनराज पर ढल रहे हों। बड़ौदा के एक बगीचे में यह सिंह था। वह आजाद नहीं था‚ पिंजड़े में चक्कर काटता था। उसकी आंखों में क्रूरता का नाम भी नहीं था। उसकी मुद्रा और दृष्टि में करुणा भरी थी। संसार की मानो उसे कोई चिंता ही नहीं थी। अपने ही ध्यान में वह मग्न दिखायी देता था। सचमुच ही ऐसा लगता था‚ मानो सिंह परमेश्वर की एक पावन विभूति है। बचपन में एण्ड्रोक्लीज और सिंह की कहानी पढ़ी थी। कितनी बढ़िया कहानी है वह। वह भूखा सिंह एण्ड्रोक्लीज के पहले के उपकार को स्मरण करके उसका मित्र बन जाता है और उसके पैर चाटने लगता है। यह क्या है? एण्ड्रोक्लीज ने सिंह में रहने वाले परमेश्वर का दर्शन कर लिया था। भगवान शंकर के पास सिंह सदैव रहता है। सिंह भगवान की दिव्य विभूति है। 18. और बाघ की भी क्या कम मौज है? उसमें बड़ा ईश्वरीय तेज व्यक्त हुआ है। उससे मित्रता रखना असंभव नहीं। भगवान पाणिनि अरण्य में बैठे शिष्यों को पाठ पढ़ा रहे थे। इतने में बाघ आ गया। बालक घबराकर चिल्लाने लगे– व्याघ्रःǃ व्याघ्र:ǃ पाणिनि ने कहा– "अच्छा‚ व्याघ्र का अर्थ क्या है? व्याजिघ्रतीति व्याघ्रः‚ अर्थात‚ जिसकी घ्राणेन्द्रिय तीव्र है‚ वह व्याघ्र है।" बालकों को भले ही उससे कुछ डर लगा हो‚ पर भगवान पाणिनि के लिए तो वह व्याघ्र एक निरुपद्रवी‚ आनंदमय शब्दमात्र हो गया था। बाघ को देखकर वे उस शब्द की व्युत्पत्ति बताने लगे। बाघ पाणिनि को खा गया, परंतु बाघ के खा जाने से क्या हुआ? पाणिनि के शरीर की गंध उसे मीठी लगी‚ उसने खा डाला। परंतु पाणिनी वहाँ से भागे नहीं‚ क्योंकि वे तो शब्दब्रह्म के उपासक थे। उनके लिए सब कुछ अद्वैतमय हो गया था। व्याघ्र में भी वे शब्दब्रह्म का अनुभव कर रहे थे। पाणिनी की इस महत्ता के कारण ही भाष्यों में जहां–जहाँ उनका नाम आता है‚ वहां-वहाँ ‘भगवान पाणिनि’ कहकर पूज्यभाव से उनका उल्लेख किया जाता है। पाणिनि का अत्यंत उपकार मानते हैं– अज्ञानांधस्य लोकस्य ज्ञानांजनशलाकया। ऐसे भगवान पाणिनि व्याघ्र में परमात्मा का दर्शन कर रहे हैं। ज्ञानदेव ने कहा है– घरा येवो पां स्वर्ग। कां वरिपडो व्याघ्र। –‘भले ही घर में स्वर्ग उतर आये या व्याघ्र आकर चढ़ाई कर दे‚ फिर भी आत्मबुद्धि में कोई भंग न हो।’ ऐसी महर्षि पाणिनि की स्थिति हो गयी थी। वे इस बात को समझ गये थे कि बाघ एक दैवी विभूति है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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