गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 11

Prev.png
दूसरा अध्याय
सब उपदेश थोड़े में: आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि
7. जीवन-सिद्धान्त: (2) देहातीत आत्मा का भान

6. ऐसी दशा में स्वधर्मनिष्ठा अकेली पर्याप्त नहीं होती। उसके लिए दूसरे दो और सिद्धान्त जागृत रखने पड़ते हैं। एक तो यह कि मैं यह मरियल देह नहीं हूँ, देह तो केवल ऊपर की क्षुद्र पपड़ी है; और दूसरा यह कि मैं कभी न मरने वाला अखंड और व्यापक आत्मा हूँ। इन दोनों को मिलाकर एक पूर्ण तत्त्वज्ञान होता है।

यह तत्त्वज्ञान गीता को इतना आवश्यक जान पड़ता है कि गीता उसी का पहले आवाहन करती है और स्वधर्म का अवतार बाद में करती है। कुछ लोग पूछते हैं कि तत्त्वज्ञान सम्बन्धी ये श्लोक प्रारम्भ में ही क्यों? परन्तु मुझे लगता है कि गीता में यदि कोई श्लोक ऐसे हैं, जिनकी जगह बिलकुल नहीं बदली जा सकती, तो वे ये ही श्लोक हैं।

इतना तत्त्वज्ञान यदि मन में अंकित हो जाये, तो फिर स्वधर्म बिलकुल भारी नहीं पड़ेगा। यही नहीं, स्वधर्म के अतिरिक्त और कुछ करना भारी मालूम पड़ेगा। आत्मतत्त्व की अखंडता और देह की क्षुद्रता, इन बातों को समझ लेना कोई कठिन नहीं हैं; क्योंकि ये दोनों सत्य वस्तुएं हैं। परन्तु हमें उनका विचार करना होगा। बार-बार मन में उनका मंथन करना होगा। इस चाम के महत्त्व को घटाकर हमें आत्मा को महत्त्व देना सीखना होगा।

7. यह देह तो पल-पल बदलती रहती है। बचपन, जवानी और बुढ़ापा- इस चक्र का अनुभव किसे नहीं है? आधुनिक वैज्ञानिकों का तो कहना है कि सात साल में शरीर बिलकुल बदल जाता है और पुराने खून की एक बूंद भी शेष नहीं रहती। हमारे पूर्वज मानते थे कि बारह वर्ष में पुराना शरीर मर जाता है और इसलिए प्रायश्चित, तपश्चर्या, अध्ययन आदि की भी मीयाद बारह-बारह वर्ष की रखते थे। बहुत वर्ष की जुदाई के बाद जब कोई बेटा अपनी मां से मिला, तो मां उसे पहचान न सकी- ऐसे किस्से हम सुनते हैं। तो क्या यही प्रतिक्षण बदलने वाला, प्रतिक्षण मरणशील देह ही तेरा रूप है? रात-दिन जहाँ मल-मूत्र की नालियां बहती हैं और तुझ जैसा जबर्दस्त धोने वाला मिल जाने पर भी जिसका अस्वच्छता का व्रत छूटता ही नहीं, क्या वही तू है? वह अस्वच्छ, तू उसे साफ करने वाला; वह रोगी, तू उसे दवा-पानी देने वाला; वह साढ़े तीन हाथ की जगह घेरे हुए, तू त्रिभुवन-विहारी; वह नित्य परिवर्तनशील, तू उसके परिवर्तन देखने वाला; वह मरने वाला और तू उसके मरण का व्यवस्थापक; तेरा और उसका भेद इतना स्पष्ट होते हुए भी तू इतना संकुचित क्यों कर बनता है? यह क्यों कहता है कि इस देह से जितने सम्बन्ध रखते हैं, वे ही मेरे हैं? और इस देह की मृत्यु के लिए इतना शोक भी क्यों करता है? भगवान पूछते है कि ‘‘अरे, देह का नाश क्या शोक करने जैसी बात है?’’

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः