गीता-प्रवचन -विनोबा पृ. 107

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दसवां अध्याय
विभूति-चिंतन
52. सृष्टिस्थित परमेश्वर


9. पहले हम मानव की सौम्यतम और पावन मूर्तियों में परमात्मा का दर्शन करना सीखें। उसी तरह इस सृष्टि में भी जो-जो विशाल और मनोहर रूप है, उनमें उसके दर्शन पहले करें।

10. वह उषा! सूर्योदय के पहले की वह दिव्य प्रभा! उस उषा देवी के गीत गाते हुए मस्त होकर ऋषि नाचने लगते थे- "उषे, तू परमेश्वर का संदेश लाने वाली दिव्य दूतिका है, तू हिमकणों से नहाकर आयी है। तू अमृतत्त्व की पताका है।" ऐसे भव्य और हृदयस्पर्शी वर्णन ऋषियों ने उषा के किये हैं। वैदिक ऋषि कहते हैं- "तू जो परमेश्वर की संदेश-वाहिका है, तुझे देखकर यदि परमेश्वर की पहचान मुझे न हो, उसके स्वरूप का ज्ञान न हो, तो फिर मुझे परमेश्वर का स्वरूप कौन समझा सकेगा?" इतने सुंदर रूप में सज-धजकर यह उषा सामने खड़ी है, परंतु हमारी दृष्टि उस पर जाती कहाँ है?

11. उसी तरह उस सूर्य को देखो। उसके दर्शन मानो परमात्मा के ही दर्शन हैं। वह नाना प्रकार के रंग-बिरंगे चित्र आकाश में खींचता है। चित्रकार महीनों तक कूंची चलाकर सूर्योदय के चित्र बनाते रहते हैं। प्रातः काल में उठकर परमेश्वर की कला को देखो! उस दिव्य कला के लिए, उस अनंत सौंदर्य के लिए भला कोई उपमा दी जा सकेगी? परंतु देखता कौन है? उधर वह सुंदर भगवान खड़ा है और इधर यह मुंह पर और भी रजाई ओढ़कर नींद में पड़ा है! सूर्य कहता है- "अरे आलसी, तू पड़ा रहना चाहेगा, किंतु मैं तुझे अवश्य उठाऊंगा।" ऐसा कहकर वह अपनी जीवनदायी किरणें खिड़कियों में से भेजकर उस आलसी को जगा देता है। सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च- सूर्य समस्त स्थावर-जंगम की आत्मा है। चराचर का आधार है। ऋषि ने उसे ‘मित्र नाम दिया है- मित्रो जनान् यातयति ब्रुवाणः, मित्रो दाधार पृथ्वीमुत द्याम्- ‘यह मित्र लोगों को पुकारता है, उन्हें काम में लगाता है। उसने स्वर्ग और पृथ्वी का धारण किया है।’ सचमुच ही वह सूर्य जीवन का आधार है। उसमें परमात्मा के दर्शन करो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीता प्रवचन -विनोबा
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
1. प्रास्ताविक आख्यायिका : अर्जुन का विषाद 1
2. सब उपदेश थोड़े में : आत्मज्ञान और समत्वबुद्धि 9
3. कर्मयोग 20
4. कर्मयोग सहकारी साधना : विकर्म 26
5. दुहरी अकर्मावस्था : योग और सन्यास 32
6. चित्तवृत्ति-निरोध 49
7. प्रपत्ति अथवा ईश्वर-शरणता 62
8. प्रयाण-साधना : सातत्ययोग 73
9. मानव-सेवारूप राजविद्या समर्पणयोग 84
10. विभूति-चिंतन 101
11. विश्वरूप–दर्शन 117
12. सगुण–निर्गुण–भक्ति 126
13. आत्मानात्म-विवेक 141
14. गुणोत्कर्ष और गुण-निस्तार 159
15. पूर्णयोग : सर्वत्र पुरूषोत्तम-दर्शन 176
16. परिशिष्ट 1- दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा 188
17. परिशिष्ट 2- साधक का कार्यक्रम 201
18. उपसंहार- फलत्याग की पूर्णता-ईश्वर-प्रसाद 216
19. अंतिम पृष्ठ 263

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