गर्ग संहिता
माधुर्य खण्ड : अध्याय 14
'महाराज ! रङ्गपत्तन में रंगोजि नाम से प्रसिद्ध एक गोप हैं, जो उस नगर के स्वामी तथा नीतिवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। शत्रुओं ने उनके नगर को चारों ओर से घेर लिया है। वे बड़ी चिन्ता में पड़ गये हैं और अनाथ होकर आपकी शरण में आये हैं। इस भूतल पर केवल आप ही दीनों और दु:खियों की पीड़ा रहने वाले हैं। भौमासुरादि वीर आपके गुण गाया करते हैं। आप महाबली हैं और देवता, असुर तथा उद्भट भूमिपालों को युद्ध में जीतकर देवराज इन्द्र के समान अपनी राजधानी में विराजमान हैं। जैसे चकोर चन्द्रमा को, कमलों का समुदाय सूर्य को, चातक शरद् ऋतु के बादलों द्वारा बरसाये गये जल कणों को, भुख से व्याकुल मनुष्य अन्न को तथा प्यास से पीड़ित प्राणी पानी को ही याद करता है, उसी प्रकार रंगोजि गोप शत्रु के भय से आक्रान्त हो केवल आपका स्मरण कर रहे है'। नारदजी कहते हैं- राजन् ! दूत की यह बात सुनकर दीनवत्सल कंस ने करोड़ों दैत्यों की सेना के साथ वहाँ जाने का विचार किया। उसके हाथी के गण्ड-स्थल पर गोमूत्र में घोले गये सिन्दूर और कस्तूरी के द्वारा पत्र रचना की गयी थी। वह हाथी विन्ध्याचल के समान ऊँचा था और उसके गण्ड स्थल से मद झर रहे थे। उसके पैर में साँकले थीं। वह मेघ की गर्जना के समान जोर-जोर से चिग्घाड़ता था। ऐसे कुवलयापीड नामक गजराज पर चढ़कर मदमत्त राजा कंस सहसा कवच आदि से सुसज्जित हो चाणूर, मुष्टिक आदि मल्लों तथा केशी, व्योमासुर और वृषासुर आदि दैत्य-योद्धाओं के साथ रंगपत्त की और प्रस्थित हुआ। वहाँ यादवों और कौरवों की सेनाओं में परस्पर बाणों, खड्गों और त्रिशूलों के प्रहार से घोर युद्ध हुआ। जब बाणों से सब और अन्धकार-सा छा गया, तब कंस एक विशाल गदा हाथ में लेकर कौरव-सैना में उसी प्रकार घुसा, जैसे वन में दावानल प्रविष्ट हुआ हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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