गर्ग संहिता
माधुर्य खण्ड : अध्याय 1
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! उनका यह वचन सुनकर सभी गोपियाँ अलग-अलग विशाल पात्रों में छप्पन भोग लेकर यमुनाजी के तट पर गयीं और सिर झुकाकर उन्होंने श्रीकृष्ण की कही हुई बात दुहरा दी। मैथिलेश्वर ! फिर तत्काल यमुनाजी के उन गोपियों के लिये मार्ग दे दिया। उस मार्ग से सभी गोपियाँ अत्यंत विस्मित हो, भाण्डीर-वट के पास पहुँची। वहाँ उन्होनें दुर्वासा मुनि की परिक्रमा की और उनके आगे बहुत-सी भोजन सामग्री रखकर उनका दर्शन किया। फिर सब-की-सब कहने लगीं- 'मुने ! पहले मेरा अन्न ग्रहण कीजिये, पहले मेरा अन्न भोजन कीजिये।' इस तरह परस्पर विवाद करती हुई गोपियों का भक्तिसूचक भाव जानकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा ने यह विमल वचन कहा। मुनि बोले- गोपियों ! मैं कृतकृत्य परमहंस हूँ, निष्क्रिय हूँ। इसलिये तुम लोग अपना-अपना भोजन अपने ही हाथों से मेरे मुँह में डाल दो। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! यों कहकर जब उन्होंने अपना मुँह फैलाया, तब सभी गोपियों ने अत्यंत हर्ष के साथ अपने-अपने छप्पन भोगों को उनके मुँह में एक साथ ही डालना आरम्भ किया। अन्न डालती हुई उन गोपियों के देखते-देखते मुनीश्वर दुर्वासा क्षुधा से पीड़ित भाँति उन समस्त भागों को, जो करोड़ों भार से कम न थे, चट कर गये। गोपियाँ आश्चर्य चकित हो एक-दूसरी की ओर देखने लगीं। नृपश्रेष्ठ ! इस तरह उनके सारे बर्तन खाली हो गये। तत्पश्चात उन परम शांत और भक्त वत्सल मुनि को विस्मित हुई सभी गोपियों ने पूर्णमनोरथ होकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा। गोपियों ने कहा- मुने ! यहाँ आने से पूर्व श्रीकृष्ण की कही हुई बात दुहराकर मार्ग मिल जाने यमुना जी को पार करके हम लोग आपके समीप दर्शन की शुभ इच्छा लेकर यहाँ आ गयी थीं। अब इधर से हम कैसे जायेंगी, यह महान संदेह हमारे मन में हो गया है ! अत: आप ही ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे मार्ग हलका हो जाये । मुनि बोले- गोपियो ! तुम सब यहाँ से सूखपूर्वक चली जाओ। जब यमुनाजी के किनारे पहुँचों, तब मार्ग के लिये इस प्रकार कहना- 'यदि दुर्वासा मुनि इस भूतल पर केवल दुर्वा का रस पीकर रहते हों, कभी अन्न और जल न लेकर व्रत का पालन करते हों तो सरिताओं की शिरोमणि यमुनाजी ! हमें मार्ग दे दो।' ऐसी बात कहने पर यमुनाजी तुम्हे स्वत: मार्ग दे देंगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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