गर्ग संहिता
माधुर्य खण्ड : अध्याय 1
गोपियाँ बोलीं- अघनाशन श्रीकृष्ण ! जैसे चकोरी चद्रदर्शन के लिये उत्सुक रहती है, उसी प्रकार हम गोपांग्नाएं आपसे मिलने को उत्कण्ठित रहती हैं। अत:आप हमारे घर में शीघ्र क्यों नहीं आये ? श्रीभगवान ने कहा - प्रियाओ ! जो जिसके हृदय में वास करता है, वह उससे दूर कभी नहीं रहता। देखे न, सूर्य तो आकाश में है और कमल भूमि पर, फिर भी वह उन्हें देखते ही खिल उठता है (वह सूर्य को अपने अत्यन्त निकटस्थ अनुभव करता है)। प्रियाओ ! आज मेरे साक्षात गुरु भगवान दुर्वासा मुनि भाण्डीर-वन में पधारे हैं। उन्हीं की सेवा के लिये मैं चला गया था। गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं, गुरु भगवान महेश्वर हैं और गुरु साक्षात परम ब्रह्म है। उन श्रीगुरु को मेरा नमस्कार है। अज्ञानरूपी रतौंधी से अंधे हुए मनुष्य की दृष्टि को जिन्होनें ज्ञानान्जन की शलाका से खोल दिया है, उन श्रीगुरुदेव को नमस्कार है। अपने गुरु को मेरा स्वरूप ही समझना चाहिये और कभी उनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। गुरु सम्पूर्ण देवताओं के स्वरूप होते हैं। अत: साधारण मनुष्य समझकर उनकी सेवा नहीं करनी चाहिये।[1] हे प्रियाओ ! मैं उनका पूजन करके तथा उनके चरण कमलों में प्रणाम करके तुम्हारे घर देरी से पहुँचा हूँ। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! श्रीकृष्ण का यह उत्तम वचन सुनकर समस्त गोपांगनाओं को बड़ा विस्मय हुआ। वे हाथ जोड़कर सिर झुकाकर श्रीकृष्ण से बोलीं। गोपियों ने कहा- प्रभो ! यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। आप स्वयं परिपूर्णतम परमेश्वर के भी गुरु दुर्वासामुनि है, यह जानकर हमारा मन उनके दर्शन के लिये उत्सुक हो उठा है। देव ! परमेश्वर !! आज रात के दो पहर बीत जाने पर उनका दर्शन हमें कैसे प्राप्त हो सकता है। बीच में विशाल नदी यमुना प्रतिबन्धक बनकर खड़ी है, अत: देव ! बिना किसी नाव के यमुनाजी को पार करना कैसे सम्भव होगा ? श्रीभगवान बोले- प्रियाओं ! यदि तुम लोगों को अवश्य ही वहाँ जाना है तो यमुना जी के पास पहुँचकर मार्ग प्राप्त करने के लिये इस प्रकार कहना- 'यदि श्रीकृष्ण बालब्रह्मचारी और सब प्रकार के दोषों से रहित हैं तो सरिताओं में श्रेष्ठ यमुनाजी ! हमारे लिये मार्ग दे दो।' यह बात कहने पर यमुना तुम्हे स्वत: मार्ग दे देंगी। उस मार्ग से तुम सभी व्रजांगनाएं सुखपूर्वक चली जाना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ • गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुर्गुरूर्देवो महेश्वर: । गुरू: साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नम:।। अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाजशलाकाय। चक्षुरुर्न्मेलितं येन तस्मैं श्रीगुरूवे नम:।। स्वगुरुं मां विजानीयात्रावमन्येत कर्हिचित् । मर्त्यबुद्धया सेवेत सर्वदेवमयो गुरु: ।। (गर्ग0 माधुर्य0 1 । 13-15)
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