गर्ग संहिता
गिरिराजखण्ड : अध्याय 11
तत्पश्चात् ‘तप्तसूर्मि’ नामक नरक में मुझ दुष्ट को एक कल्प तक महान दु:ख भोगना पड़ा। इस तरह चौरासी लाख नरकों में से प्रत्येक में अलग-अलग यमराज की इच्छा से मैं एक-एक वर्ष तक पड़ता और निकलता रहा। तदनन्तर भारतवर्ष में कर्मवासना के अनुसार मेरा दस बार तो सूअर की योनि में जन्म हुआ और सौ बार व्याघ्र की योनि में। फिर सौ जन्मों तक ऊँट और उतने ही जन्मों तक भैंसा हुआ। इसके बाद एक सहस्त्र जन्म तक मुझे सर्प की योनि में रहना पड़ा। फिर कुछ दुष्ट मनुष्यों ने मिलकर मुझे मार डाला। विप्रवर ! इस तरह दस हजार वर्ष बीतने पर जलशून्य विपिन में मैं ऐसा विकराल और महाखल राक्षस हुआ, जैसा कि तुमने अभी-अभी देखा है। एक दिन किसी शूद्र के शरीर में आविष्ट होकर व्रज में गया। वहाँ वृन्दावन के निकटवर्ती यमुना के सुन्दर तट से हाथ में छड़ी लिये हुए कुछ श्यामवर्ण वाले श्रीकृष्ण के पार्षद उठे और मुझे पीटने लगे। उनके द्वारा तिरस्कृत होकर मैं व्रजभूमि से इधर भाग आया, तबसे बहुत दिनों तक मैं भूखा रहा और तुम्हें खा जाने के लिये यहाँ आया। इतने में ही तुमने मुझे गिरिराज के पत्थर से मार दिया। मुने ! मुझ पर साक्षात श्रीकृष्ण की कृपा हो गयी, जिससे मेरा कल्याण हो गया। श्रीनारदजी कहते हैं– राजन ! वह इस प्रकार कह ही रहा था कि गोलोक से एक विशाल रथ उतरा। वह सहस्त्रों सूर्यों के समान तेजस्वी था और उसमें दस हजार घोडे़ जुते हुए थे। नरेश्वर ! उससे हजारों पहियों के चलने की ध्वनि होती थी। लाखों पार्षद उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। मंजीर और क्षुद्र-घण्टिकाओं के समूह से आच्छादित वह रथ अत्यन्त मनोहर दिखायी देता था। ब्राह्मण के देखते-देखते ओर सिद्ध को लने के लिये जब वह रथ आया, तब ब्राह्मण और सिद्ध दोनों ने उस दिव्य रथ को नमस्कार किया। मिथिलेश्वर ! तदनन्तर वह सिद्ध उस रथ पर आरूढ हो दिग्मण्डल को प्रकाशित करता हुआ परात्पर श्रीकृष्ण-लोक में पहुँच गया, जो निकुंज-लीला के कारण ललित एवं परम मनोहर है। मैथिल ! वह ब्राह्मण भी गोवर्धन प्रभाव जान गया था, इसलिये वहाँ से लौटकर समस्त गिरिराजों के देवता गोवर्धन गिरि पर आया और उसकी परिक्रमा एवं उसे प्रणाम करके अपने घर को गया । राजन ! इस प्रकार मैंने यह विचित्र एवं उत्तम मोक्षदायक श्रीगिरिराज खण्ड तुम्हें कह सुनाया। पापी मनुष्य भी इसका श्रवण करके स्वप्न में भी कभी उग्रदण्डधारी प्रचण्ड यमराज का दर्शन नहीं करता। जो मनुष्य गिरिराज के यश से परिपूर्ण गोपराज श्रीकृष्ण की नूतन के लिये रहस्य को सुनता है, वह देवराज इन्द्र की भाँति इस लोक में सुख भोगता है और नन्दराज के समान परलोक में शांति का अनुभव करता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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