गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 1
नारद जी के द्वारा अवतार-भेद का निरूपण ‘भगवान नारायण, नरश्रेष्ठ नर, देवी सरस्वती तथा महर्षि व्यास को नमस्कार करने के पश्चात् जय (श्रीहरि की विजय गाथा से पूर्ण इतिहास पुराण) का उच्चारण करना चाहिये। मैं भगवान श्रीराधाकान्त के उन युगल चरण कमलों को अपने हृदय में धारण करता हूँ, जो शरद ऋतु के प्रफुल्लित कमलों की शोभा को अत्यंत नीचा दिखाने वाले हैं, मुनिरूपी भ्रमरों के द्वारा जिनका निरंतर सेवन होता रहता है, जो वज्र और कमल आदि के चिह्नों से विभूषित हैं, जिनमें सोने के नूपुर चमक रहे हैं और जिन्होंने भक्तों के त्रिविध ताप का सदा ही नाश किया तथा जिनसे दिव्य ज्योति छिटक रही है। जिनके मुख कमल से निकली हुई आदि कथारूपी सुधा का बड़भागी मनुष्य सदा पान करता रहता है, वे बदरीवन में विहार करने वाले, प्रणतजनों का ताप हरने में समर्थ, भगवान विष्णु के अवतार सत्यवती कुमार श्रीव्यासजी मेरी वाणी की रक्षा करें- उसे दोषमुक्त करें’। एक समय की बात है, ज्ञानि शिरोमणि परम तेजस्वी मुनिवर गर्गजी, जो योगशास्त्र के सूर्य हैं, शौनकजी से मिलने के लिये नैमिषारण्य में आये। उन्हें आया देख मुनियों सहित शौनकजी सहसा उठकर खड़े हो गये और उन्होंने पाद्य आदि उपचारों से विधिवत उनकी पूजा की। शौनकजी ने कहा- साधु पुरुषों का सब ओर निचरण धन्य है; क्योंकि वह गृहस्थ-जनों को शांति प्रदान करने का हेतु कहा गया है। मनुष्यों के भीतरी अन्धकार का नाश महात्मा ही करते हैं, न कि सूर्य। भगवान ! मेरे मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई है कि भगवान के अवतार कितने प्रकार के हैं। आप कृपया इसका निवारण कीजिये। श्रीगर्गजी कहते हैं- ब्रह्मन ! भगवान के गुणानुवाद से सम्बन्ध रखने वाला आपका यह प्रश्न बहुत ही उत्तम है। यह कहने, सुनने और पूछने वाले- तीनों के कल्याण का विस्तार करने वाला है। इसी प्रसंग में एक प्राचीन इतिहास का कथन किया जाता है, जिसके श्रवण मात्र से बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं। पहले की बात है, मिथिलापुरी में बहुलाश्व नाम से विख्यात एक प्रतापी राजा राज्य करते थे। वे भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त, शांतचित्त एवं अहंकार से रहित थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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