गर्ग संहिता
गिरिराज खण्ड : अध्याय 1
गौ, बाह्मण, साधु, अग्नि, देवता, वेद तथा धर्म- ये भगवान यज्ञेश्वर की विभूतियां हैं। इनको आधार बनाकर जो श्री हरि का भजन करते हैं, वे सदा इस लोक और परलोक में सुख पाते हैं। भगवान के वक्ष:स्थल से प्रकट हुआ वह गिरीन्द्रों का सम्राट गोवर्धन नामक पर्वत महर्षि पुलस्त्य के प्रभाव से इस व्रजमण्डल में आया है। उसके दर्शन से मनुष्य का इस जगत में पुनर्जन्म नहीं होता। गौओं, ब्राह्मणों तथा देवताओं का पूजन करके आज ही यह उत्तम भेंट-सामग्री महान गिरिराज को अर्पित की जाय। यह यज्ञ नहीं यज्ञों का राजा है। यही मुझे प्रिय है। यदि आप यह काम नहीं करना चाहते तो जाइये, जैसी इच्छा हो, वैसा कीजिये । श्रीनारदजी कहते हैं – राजन् ! उन गोपों में सन्नन्द नामक एक बड़े –बूढ़े गोप थे, जो बड़े नीतिवेत्ता थे। उन्होनें अत्यन्त प्रसन्न होकर नन्दजी के सुनते हुए श्रीकृष्ण से कहा । सन्नन्द बोले – नन्दनन्दन ! तात ! तुम तो साक्षात ज्ञान की निधि हो। गिरिराज की पूज किस विधि से करनी होगी, यह ठीक-ठीक बताओ।। श्रीभगवान ने कहा – जहाँ गिरिराज की पूजा करनी हो, वहाँ उनके नीचे की धरती को गोबर से लीप-पोतकर वहीं सब सामग्री रखनी चाहिए। इन्द्रियों को वश में रखकर बड़े भक्ति-भाव से ‘सहस्त्रशीर्षा०’ मंत्र पढ़ते हुए, ब्राह्मणों के साथ रहकर गंगाजल या यमुनाजल से गिरिराज को स्नान कराना चाहिए। फिर श्वेत गोदुग्ध की धारा से तथा पंचामृत से स्नान कराकर, पुन: यमुना-जल से नहलाये। उसके बाद गन्ध, पुष्प, वस्त्र, आसन, भाँति-भाँति के नैवेद्य, माला, आभूषण समूह तथा उत्तम दीपमाला समर्पित करके गिरिराज की परिक्रमा करे। इसके बाद साष्टांग प्रणाम करके, दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहे– ‘जो श्रीवृन्दावन के अंग में अवस्थित तथा गोलोक के मुकुट हैं, पूर्णब्रह्म परमात्मा के छत्ररूप उन गिरिराज गोवर्धन को हमारा बारंबार नमस्कार है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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