गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 19
यमुना के मनोहर तीर पर उन सुन्दरियों के साथ श्यामसुन्दर थोड़ी देर बैठे रहे।[1] फिर मधुर-मधुर बातें करते हुए अपने प्रिय वृन्दाविपिन की शोभा निहारने लगे। वे श्रीराधा के साथ चलते और हास-विनोद करते हुए कुंजवन में विचरने लगे। एक कुंज में प्रिया का हाथ छोड़कर वे तुरंत कहीं छिप गये। किंतु एक शाखा की ओट में उन्हें खड़ा देख श्रीराधा ने माधव को अविलम्ब जा पकड़ा। फिर श्रीराधा उनके हाथ से छूटकर पग-पग पर नूपुरों का झंकार प्रकट करती हुई भागी और माधव के देखते-देखते कुंजों में छ्पिने लगी। माधव हरि ज्यों ही दौड़कर उनके स्थान पर पहुँचे, त्यों-ही राधा वहाँ से अन्यत्र चली गयीं। वृक्षों के पास हाथ-भर की दूरी पर इधर-उधर वे भागने लगीं। उस समय श्रीराधा के साथ श्यामसुन्दर हरि की उसी तरह शोभा हो रही थी, जैसे सुवर्णलता से श्याम तमाल की, चपला से घनमण्डल की तथा सोने की खान से नीलाचल की होती है। वृन्दावन में रास की रंग स्थली में रति के साथ कामदेव की भाँति विश्वमोहिनी श्रीराधा के साथ मदन मोहन श्रीकृष्ण सुशोभित हो रहे थे। जितनी व्रजसुन्दरियाँ वहाँ विद्यमान थीं, उतने ही रूप धारण करके रंग भूमि में नट के समान नटवर श्रीकृष्ण रासरंग में नृत्य करने लगे। उनके साथ सम्पूर्ण मनोहर गोप-सुन्दरियाँ भी गाने और नृत्य करने लगी। अनेक कृष्णचन्द्रों के साथ वे गोपसुन्दरियाँ ऐसी जान पड़ती थी, मानो बहुसंख्यक इन्द्रों के साथ देवांगनाएँ नृत्य कर रही हों। तदंतर मधूसुदन श्रीकृष्ण समस्त गोप-सुन्दरियों के साथ यमुना जल में विहार करने लगे-ठीक उसी तरह जैसे यक्ष-सुन्दरियों के साथ यक्ष राज कुबेर विहार करते हैं। उन सुन्दरियों के केशपाश तथा कबरी (बँधी हुई चोटी) से खिसककर गिरे हुए सुन्दर चित्र विचित्र पुष्पों से यमुना जी की ऐसी शोभा हो रही थी, जैसे किसी नीलपट पर विभिन्न रंग के फूल छाप दिये गये हों। मृदंग और खड़तालों की मधुअर ध्वनि के साथ वे व्रजांगनाएँ मधुसूदन का यश गाती थीं। उनका मनोरथ पूर्ण हो गया। श्रीहरि ने उनकी सारी व्यथा हर ली थी। उनके पुष्पहार चंचल हो रहे थे और वे परमानन्द में निमग्न हो गयी थीं। जिनके सुन्दर हाथों से ताड़ित हो उछलते हुए वारि-बिन्दु, जो फुहारों से छूटते हुए असंख्य अनुपम जल कणों की छवि धारण कर रहे थे, उन व्रज-सुन्दरियों के साथ वृन्दावनाधीश्वर श्रीकृष्ण ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो बहुत सी हथिनियों के साथ यूथपति गजराज सुशोभित हो रहा हो। आकाश में खड़ी हुई विद्याधरियाँ, देवांगनाएँ तथा गन्धर्व पत्नियाँ उस रास-रंग को देखती हुई वहाँ देवताओं के साथ पुष्पवर्षा कर रही थी। वे सब-की-सब मोह को प्राप्त हो गयी थी। उनके वस्त्रों के नीवी-बन्ध ढ़ीले पड़कर खिसक रहे थे । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वृन्दावने यथाऽऽकाशे चन्द्रस्तारागणैर्यथा। पीतवास: परिकरो नटवेषो मनोहर: ।।
वेत्र भृद्वादयन् वंशीं गोपीनां प्रीतिमावहन्। मयूरपक्षभृन्मौलि: स्रत्रग्वी कुण्डललमण्डित: ।।
राधया शुशुभे रासे यथा स्त्या रतीश्वर:। एवं गायन् हरि: साक्षात् सुद्ररीरागसंवृत: ।।
यमुनापुलिनं पुण्यमाययौ राधया युत:। गृहीत्वा हस्तपद्मेन पद्माभं स्वप्रियाकरम् ।।
निषसाद हरि: कृष्णातीरे नीरमनोहरे ।
(गर्ग0 वृन्दावन0 19। 25-28½)
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