गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 18
श्रीहरि ने देखा- ‘प्रियतमा श्रीराधा मेरे दर्शन के लिये उत्कण्ठित हैं। इनके अंग-अंग में स्वेद (पसीना) हो आया है और मुख पर आँसुओं की धारा बह चली है।’ यह देख अपना पुरुष रूप धारण करके भक्तवत्सल श्रीकृष्ण सखियों के देखते-देखते सहसा वहाँ प्रकट हो गये और प्रसन्नचित्त हो घनगर्जन के समान गम्भीर वाणी में श्रीराधा से बोलें । श्रीराधा ने कहा- रम्भोरू ! चन्द्रवदने ! व्रज-सुन्दरी-शिरोमणे ! नूतनयौवनशालिनि ! मानशीले ! प्रिये राधे ! तुमने अपनी मधुरवाणी से मुझे बुलाया है, इसलिये मैं तुरंत यहाँ आ गया हूँ। अब आँख खोलकर मुझे देखो। ललने ! ‘प्रियतम कृष्ण ! आओ’- यह वाक्य यहाँ से प्रकट हुआ और मैंने सुना। फिर उसी क्षण अपने गोकुल और गोपवृन्द को छोड़कर, वंशीवट और यमुना के तट से वेगपूर्वक दौड़ता हुआ तुम्हारी प्रसन्नता के लिये यहाँ आ पहुँचा हूँ। मेरे आते ही कोई सखीरूपधारिणी यक्षी, आसुरी, देवांगना अथवा किंनरी, जो कोई भी मायाविनी तुम्हें छलने के लिये आयी थी, यहाँ से चल दी। अत: तुम्हें ऐसी नागिन पर विश्वास ही नहीं करना चाहिये । श्रीनारद जी कहते हैं- तदनंतर श्रीराधा श्रीहरि को देखकर उनके चरण-कमलों में प्रणत हो परमानन्द में निमग्न हो गयीं। उनका मनोरथ तत्काल पूर्ण हो गया। श्रीकृष्णचन्द्र के ऐसे अद्भुत चरित्रों का जो भक्ति भाव से श्रवण करता है, वह मनुष्य कृतार्थ हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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