गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 13
शेष ने कहा-प्रभो! पृथ्वी का भार उठाने के लिये आप कोई अवधि निश्चित कर दीजिये। जितने दिन की अवधि होगी, उतने समय तक मैं आपकी आज्ञा से भूमि का भार अपने सिर पर धारण करूँगा । श्रीभगवान बोले- नागराज! तुम अपने सहस्र मुखों से प्रतिदिन पृथक-पृथक मेरे गुणों से स्फुरित होने वाले नूतन नामों का सब ओर उच्चारण किया करो। जब मेरे दिव्य नाम समाप्त हो जायँ, तब तुम अपने सिर से पृथ्वी का भार उतार कर सुखी हो जाना। शेष ने कहा-प्रभो! पृथ्वी का आधार तो मैं हो जाऊँगा, किंतु मेरा आधार कौन होगा ? बिना किसी आधार के मैं जल के ऊपर कैसे स्थित रहूँगा। श्रीभगवान बोले- मेरे मित्र! इसकी चिंता मत करो। मैं ‘कच्छप’ बनकर महान भार से युक्त तुम्हारे विशाल शरीर को धारण करूँगा । श्री नारद जी कहते हैं- नरेश्वर ! तब शेष ने उठ कर भगवान श्री गरूड़ ध्वज को नमस्कार किया। फिर वे पाताल से लाख योजन नीचे चले गये। वहाँ अपने हाथ से इस अत्यंत गुरुतर भूमण्डल को पकड़कर प्रचण्ड पराक्रमी शेष ने अपने एक ही फन पर धारण कर लिया। परात्पर अनंत देव संकर्षण के पाताल चले जाने पर ब्रह्मा जी की प्रेरणा से अन्यान्य नागराज भी उनके पीछे-पीछे चले गये। कोई अतल में, कोई वितल में, कोई सुतल और महातल में तथा कितने ही तलातल एवं रसातल में जाकर रहने लगे। ब्रह्मा जी ने उन सर्पों के लिये पृथ्वी पर ‘रमणकद्वीप’ प्रदान किया था। कालिय आदि नाग उसी में सुखपूर्वक निवास करने लगे। राजन ! इस प्रकार मैंने तुम से कालिय का कथानक कह सुनाया, जो सारभूत तथा भोग और मोक्ष देने वाला है। अब और क्या सुनना चाहते हो ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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