गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 3
भगवन ! अब हम आपसे क्या निवेदन करें, आपसे तो कोई भी बात छिपी नहीं है; क्योंकि आप चराचरमात्र के भीतर विद्यमान हैं। जो शुद्ध अंत:करण वाले एवं देह बन्धन से मुक्त हैं, वे (हम विष्णु आदि) देवता भी आपको नमस्कार ही करते हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान को हमारा प्रणाम है। जो श्रीराधिकाजी के हृदय को सुशोभित करने वाले चन्द्रहार हैं, गोपियों के नेत्र और जीवन के मूल आधार हैं तथा ध्वजा की भाँति गोलोकधाम को अलंकृत कर रहे हैं, आदिदेव भगवान आप संकट में पड़े हुए हम देवताओं की रक्षा करें, रक्षा करें। भगवन ! आप वृन्दावन के स्वामी हैं, गिरिराजपति भी कहलाते हैं। आप व्रज के अधिनायक हैं, गोपाल के रूप में अवतार धारण करके अनेक प्रकार की नित्य विहार-लीलाएँ करते हैं। श्रीराधिकाजी प्राणवल्ल्भ एवं श्रुतिधरों के भी आप स्वामी हैं। आप ही गोर्वधन धारी हैं, अब आप धर्म के भार को धारण करने वाली इस पृथ्वी का उद्धार करने की कृपा करें।[1]॥19-22॥ नारदजी कहते है- इस प्रकार स्तुति करने पर गोकुलेश्वर भगवान श्रीकृष्ण प्रणाम करते हुए देवताओं को सम्बोधित करके मेघ के समान गम्भीर वाणी में बोले-। श्रीकृष्ण भगवान ने कहा- ब्रह्मा, शंकर एवं (अन्य) देवताओं ! तुम सब मेरी बात सुनो। मेरे आदेशानुसार तुम लोग अपने अंशों से देवियों के साथ यदुकुल में जन्म धारण करो। मैं भी अवतार लूँगा और मेरे द्वारा पृथ्वी का भार दूर होगा। मेरा वह अवतार यदुकुल में होगा और मैं तुम्हारे सब कार्य सिद्ध करूँगा। वेद मेरी वाणी, ब्राह्मण मुख और गौ शरीर है। सभी देवता मेरे अंग हैं। साधुपुरुष तो हृदय में वास करने वाले मेरे प्राण ही हैं। अत: प्रत्येक युग में जब दम्भपूर्ण दुष्टों द्वारा इन्हें पीड़ा होती है और धर्म, यज्ञ तथा दयापर भी भी आघात पहुँचता है, तब मैं स्वयं अपने आपको भूतल पर प्रकट करता हूँ। श्रीनारदजी कहते हैं- जिस समय जगत्पति भगवान श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार बातें कर रहे थे, उसी क्षण ‘अब प्राणनाथ से मेरा वियोग हो जायेगा’ यह समझकर श्रीराधिकाजी व्याकुल हो गयीं और दावानल से दग्ध लता की भाँति मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। उनके शरीर में अश्रु, कम्प, रोमांच आदि सात्त्विक भावों का उदय हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीदेवा ऊचु: -
कृष्णा य पूर्णपुरुषाय परात्पराय यज्ञेश्वराय परकारणकारणाय। राधावराय परिपूर्णतमाय साक्षाद् गोलोकधामधिषणाय नम: परस्मै।।
योगेश्वरा: किल वदन्ति मह: परं त्वंप तत्रैव सात्वतजना: कृतविग्रहं च। अस्माकभिरद्य विदितं यददोऽद्वयं ते तस्मै् नोऽस्तुु महतां पतये परस्मै: ।।
व्यंग्येन वा न न हि लक्षणया कदापि स्फोटेन यच्च कवयो न विशन्ति मुख्या: ।
निर्देश्यभावरहितं प्रकृते: परं च त्वां ब्रह्मा निर्गुणमलं शरणं व्रजाम: ।।
त्वां ब्रह्म केचिदवयन्ति परे च कालं केचित् प्रशान्तमपरे भूवि कर्मरूपम् ।
पूर्वे च योगमपरे किल कर्तृभावमन्योक्तिभिर्न विदितं शरणं गता: स्म्: ।।
श्रेयस्करीं भगवतस्तव पादसेवां हित्वाथ तीर्थयजनादि तपश्चरन्ति ।
ज्ञानेन ये च विदिता बहुविघ्नसंघै: संताडिता: किल भवन्ति न ते कृतार्था: ।।
विज्ञाप्येमद्य किमु देव अशेषसाक्षी य: सर्वभूतहृदयेषु विराजमान: ।
देवैर्नमद्भिरमलाशयमुक्तिदेहैस्तीस्मैा नमो भगवते पुरुषोत्ततमाय ।।
यो राधिकाहृदयसुन्दिरचन्द्र हार: श्रीगोपिकानयनजीवनमूलहार: ।
गोलोकधामधिषणध्वनज आदिदेव: स त्वंध विपत्सुन विबुधान् परिपाहि पाहि ।।
वृन्दाावनेश गिरिराजपते व्रजेश गोपालवेषकृत नित्यविहारलील ।
राधापते श्रुतिधराधिपते धरां त्वंर गोवर्धनोद्धरण उद्धर धर्मधाराम् ।।-(गर्ग0, गोलोक0 3।15-22)
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