गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 8
राजन! गोपों ने देखा कि गायें बछड़ों को दूध पिलाकर स्नेह के कारण गोवर्धन की तलहटी में ही रूक गयी हैं, तब वे अत्यंत क्रोध में भरकर पहाड़ से नीचे उतरे और अपने बालकों को दण्ड देने के लिये शीघ्रता से वहाँ पहुँचे। परंतु निकट पहुँचते ही (स्नेह के वशीभूत होकर) गोपों ने अपने बालकों के गोद में उठा लिया। युवक अथवा वृद्ध-सभी के नेत्रों में स्नेह के आँसू आ गये और वे अपने पुत्र-पौत्रों के साथ मिलकर वहाँ बैठ गये। संकर्षण बलराम ने इस प्रकार जब गोपों को प्रेम-परायण देखा, तब उनके मन में अनेक प्रकार के सन्देह उठने लगे। उन्होंने मन ही मन कहा- ‘अहो ! प्राय: एक वर्ष से व्रज में क्या हो गया है, वह मेरी समझ में नहीं आ रहा है। दिन-प्रतिदिन सबके हृदयों का स्नेह अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है। क्या यह देवताओं, गन्धर्वों या राक्षसों की माया है ? अब मैं समझता हूँ कि यह मुझे मोहित करने वाली कृष्ण की माया से भिन्न और कुछ नहीं है। इस प्रकार विचार करके बलराम जी ने अपने नेत्र बन्द कर लिये और दिव्य चक्षु से भूत, भविष्य तथा वर्तमान को देखा। बलराम जी ने समस्त गोवत्स एवं पहाड़ की तलहटी में खेलने वाले गोप-बालकों को वंशी-नेत्रविभूषित, मयूरपिच्छधारी, श्यामवर्ण, मणिसमूहों एवं नुंजाफलों की माला से शोभित, कमल एवं कुमुदिनी की मालाएँ, दिव्य पगड़ी एवं मुकुट धारण किये हुए, कुण्डलों एवं अलकावली से सुशोभित, शरत्कालीन कमलसदृश नेत्रों से निहारकर आनन्द देने वाले, करोड़ों कामदेवों की शोभा से सम्पन्न, नासिका स्थित मुक्ताभरण से अलंकृत, शिखा-भूषण से युक्त, दोनों हाथों में आभूषण धारण किये हुए, पीला वस्त्र धारण किये हुए, मेखला,कड़े और नूपुर से शोभित, करोड़ों बाल-रवियों की प्रभा से युक्त और मनोहर देखा। बलराम जी ने गोवर्धन से उत्तर की ओर एवं यमुना जी से दक्षिण की ओर स्थित वृन्दावन में सब कुछ कृष्णमय देखा। वे इस कार्य को ब्रह्माजी और श्रीकृष्ण का किया हुआ जानकर पुन: गोवत्सों एवं वत्सपालों का दर्शन करते हुए श्रीकृष्ण से बोले- ‘ब्रह्मा, अनंत, धर्म, इन्द्र और शंकर भक्तियुक्त होकर सदा तुम्हारी सेवा किया करते हैं। तुम आत्माराम, पूर्णकाम, परमेश्वर हो। तुम शून्य में करोड़ों ब्रह्माण्डों की सृष्टि करने में समर्थ हो।’[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ब्रह्मानन्तो धर्म इन्द्र: शिवश्च सेवन्ते त्वां भक्तियुक्ता: सदैते। आत्माराम: पूर्णकाम: परेश: स्रष्टुं शक्त: कोटिशोऽण्डानि य: खे ।। (गर्ग0, वृन्दावन0 8। 30)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |