गरब गोबिंदहि भावत नाहीं।
कैसी करी हिरनकस्यप सौं, प्रगट होइ छिन माहीं।
जग जानै करतूति कंस की, वृष मारयौ बल-बाहीं।
ब्रह्मा इंद्रादिक पछिताने, गर्ब धारि मन माहीं।
जौबन-रूप-राज-धन-धरती जानि जलद की छाहीं।
सूरदास हरि भजौ गर्व तजि, विमुख अगति कौं जाहीं।।23।।
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