गय असुर

गय असुर वंश में उत्पन्न परम भागवत असुर था। उसमें अधर्म का लेश मात्र भी अंश नहीं था। उसने दैत्‍यकुलतिलक अपने पूर्वज परम विष्णु भक्त प्रह्लाद के उपदेश को हृदय में धारण कर लिया था और तपस्‍या करने लगा।

नालं द्विजत्‍वं देवत्‍वमृषित्‍वं वासुरात्‍मजा: ।
प्रीणनाय मुकुन्‍दस्‍य न वृत्‍तं न बहुज्ञता ।।

‘असुरपुत्रों! भगवान मुकुन्‍द को प्रसन्‍न करने के लिये न तो ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्‍यवर्णरूप द्विज होना पर्याप्‍त है और न देवता अथवा ऋषि होना। वे दयामय न तो आचार से प्रसन्‍न होते हैं, न बहुत-से शास्‍त्रों का ज्ञान होने से।" यह उपदेश भक्त प्रह्लाद ने पाद्मकल्‍प में अपने सहपाठी दैत्‍यपुत्रों को दिया था।

कठोर तपस्या

गय की तपस्‍या अत्‍यन्‍त कठोर थी। वह एक पैर से सहस्‍त्रों वर्ष निर्जल, निराहार खड़ा रहा। भगवान में उसका चित्‍त लगा हुआ था। उसके हृदय में भगवान की मनमोहिनी मूर्ति प्रत्‍यक्ष हो गयी थी। हृदय में भगवान की जो अमृतमयी दिव्‍य झांकी होती थी, उससे गय का शरीर सदा पुलकित रहता था। उसे भूख-प्‍यास, सर्दी-गर्मी आदि का पता तक नहीं था। उसका शरीर भीतर के अनन्‍त आह्लाद के कारण बिना कुछ खाये-पिये भी सुपुष्‍ट था। उसका बल तनिक भी घटता नहीं था। उसका तेज दिशाओं में बढ़ता ही जाता था। अनेक बार भगवान ब्रह्मा, शंकर जी वरदान देने गय के पास आये, किंतु उसे तो कोई वरदान ही नहीं चाहिये था। वह तो भगवान को प्रसन्‍न करने के लिये तप कर रहा था और तप करते ही रहना चाहता था। इस तप को छोड़ना भी चाहिये, यह उसका मन सोच ही नहीं सकता था। इन्द्र, वरुण आदि ने उसे मार देने के लिये अनेक प्रयत्‍न किये। किंतु गय के शरीर पर किसी अस्‍त्र-शस्‍त्र का कोई प्रभाव नहीं होता था और वह महात्‍मा क्रोध करना तो दूर, किसी की ओर नेत्र उठाकर देखता तक नहीं था।

ब्रह्मा का आगमन

तपस्‍या से तेज बढ़ता है। गय का तेज बढ़ता ही जाता था। देवता भी उसके आगे हतप्रभ हो गये। दिशाएं उस तेज से ढक गयीं। ब्रह्मा भी सोचने लगे कि ‘अब क्‍या हो? गय का तेज इसी प्रकार बढ़ता ही गया तो सारी सृष्टि का रजोगुण और तमोगुण इस तपस्‍वी के प्रभाव से नष्‍ट हो जायगा। सत्त्वगुण सीमा छोड़कर बढ़ जाय तो भी प्रलय हो जायगी।' अन्‍त में ब्रह्मा जी ने भगवान की शरण ली। भगवान की शिक्षा के अनुसार गय के पास आकर वे बोले- ‘असुरश्रेष्‍ठ! तुम तो मुझसे कोई वरदान मांगते नहीं। किंतु आज मैं तुमसे वरदान मांगने आया हूँ। मुझे यज्ञ करना है। सृष्टि में तुम्‍हारे शरीर-जैसा पवित्र स्‍थल कोई नहीं है। यज्ञ करने के लिये मैं भूमि के रूप में तुमसे तुम्‍हारा शरीर चाहता हूँ।‘

शरीर पर यज्ञ आयोजन

गय ने कहा- "प्रजापति! मेरा सौभाग्‍य है कि मेरा शरीर किसी अच्‍छे काम में आयेगा। मेरे शरीर पर यज्ञ करके आप मेरे स्‍वामी यज्ञपुरुष नारायण का भजन करेंगे, इससे बड़ा फल इस देह का मुझे और क्‍या मिलना है। आप प्रसन्‍नता से यज्ञ करें।" इतना कहकर असुर गय लेट गया। ब्रह्मा जी ने उसकी देह पर यज्ञवेदी, कुण्‍ड आदि बनाये। ऋषियों के साथ सैकड़ों वर्ष में समाप्‍त होने वाला बड़ा भारी यज्ञ उन्‍होंने किया। सृष्टिकर्ता के आश्‍चर्य का ठिकाना नहीं रहा। गय का शरीर थोड़ा भी जला नहीं था। बिना हिले-डुले, बिना श्‍वास लिये वह महाभाग इतने समय तक चुपचाप पड़ा रहा। अब यज्ञ समाप्‍त होने पर उसने उठना चाहा। ब्रह्मा जी बहुत डरे। उन्‍होंने फिर भगवान को पुकारा। अब भगवान ने गय के विभिन्‍न अंगों पर विभिन्‍न देवताओं को स्‍थापित किया और स्‍वयं गदा लेकर उस तपस्‍वी असुर के हृदय पर खड़े हो गये। गय ने कहा- "ब्रह्मा जी! मैं चाहूँ तो अब भी सहज उठकर खड़ा हो सकता हूँ, क्‍योंकि इन सर्वात्‍मा नारायण ने कृपा करके मुझे पहले ही अपरिमित शक्ति दे दी है। किंतु मेरे स्‍वामी स्‍वयं जब तक मेरे ऊपर खड़े हैं, तब तक मैं हिल भी नहीं सकता। अपने आराध्‍य का अपमान मैं नहीं करूँगा। हां, यदि भगवान मेरे ऊपर से चले गये तो तुरंत उठ खड़ा होऊँगा। आप सब में कोई मुझे दबाये नहीं रख सकता।"

वरदान

भगवान से गय ने वरदान मांगा- "जो कोई मेरे शरीर पर अपने पितरों के लिये पिण्‍डदान करे, उसके पितर मुक्‍त हो जायँ।' भगवान ने गय को यह वरदान दिया। गया का पूरा तीर्थक्षेत्र गय के शरीर पर ही है ओर भगवान गदाधर उसके हृदय देश पर अब भी श्रीविग्रह रूप में स्थित हैं। विष्‍णु पद के उस तीर्थ में पितरों को पिण्‍डदान करने से अक्षय तृप्ति होती है और वे सारे क्‍लेशों से छूट जाते हैं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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