गन गंधर्ब देखि सिहात -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग नट


गन गंधर्ब देखि सिहात।
धन्‍य ब्रज-ललनानि कर तैं, ब्रह्य माखन खात।।
नहीं रेख, न रूप, नहिं तनु बरन, नहिं अनुहारि।
मातु-पितु नहिं दोउ जाकैं, हरत मरत न जारि।।
आपु कर्त्ता आपु हर्त्ता, आपु त्रिभुवन-नाथ।
आपुहीं सब घट कौ ब्‍यापी, निगम गावत गाथ।।
अंग प्रति-प्रति रोम जाकैं, कोटि-कोटि ब्रह्मांड।
कीट ब्रह्म प्रजंत जल-थल इनहिं तैं यह मंड।।
येइ बिस्‍वंभरन नायक, ग्‍वाल-संग-बिलास।
सोइ प्रभु दधि-दान माँगत, धन्‍य सूरजदास।।1603।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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