गए स्याम तिहिं ग्वालिनि के घर।
देखी जाइ मथति दधि ठाढ़ी, आपु लगे खेलन द्वारे पर।
फिरि चितई, हरि दृष्टि गए परि, बोलि लए हरुऐं, सुन घर।
लिए लगाइ कठिन कुच कै बिच, गाढ़ै चाँपि रही अपनैं औसर।
उमँगि अंग अँगिया उर दरकी, सुधि बिसरी तन की तिहिं औसर।
तब भए स्याम बरस द्वादस के रिझै लई जुवतो वा छबि पर।
मन हरि लियौ तनक से ह्वै गए देखि रहो सिसु-रुप मनोहर।
माखन लै मुख धरति स्याम कैं सूरज प्रभु रति-पति नागर-बर।।301।।