खैंचि भुज बंध बल बिहंसि भीतर चली -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सांरग


खैंचि भुज-बंध बल बिहँसि भीतर चली, मुरि अधर दुहुँनि के नैं‍कु डोलैं।
झूमत झूमत मत सेज निकट नवतन चढे़, मन मनहिं मुसिकाइ कोउ न बोलैं।।
सूर सकल सहचरि देखिं, तजी बि‍कलता, परम फल प्रानपति सुरति आयौ।
आपु आदर कियौ, सुमुषि बहु सुख दियो, एक तैं एकप अति मोद पायौ।।1190।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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