केसरि अरु गुलाल मुख लायौ। पूरन चंद उदै करि आयौ।।
पीत अरुन रँग नाए सिर तै। चली धानु मनु साँवर गिर तै।।
एक भरे पिचाकरी ताके। देत स्रवन मै नंदलला के।।
ब्रज जन सकल सुधा रस पीते। ऐसी भाँति पहर द्वै बीते।।
देखी निकट राधिका प्यारी। तब हरि लीला और बिचारी।।
तब हरि जाइ दुरे उपवन मैं। चली नाइका कुंजसदन मैं।।
करति कुलाहल ब्रज की नारी। देखत चढ़े कदंब बिहारी।।
कबहुँक मुरली मधुर बजावै। स्रवन सुनत जितही तित धावै।।
जब हरि जानी निकटहिं आई। डर तै तब वै रहे लुकाई।।
कुंज कुंज कोकिल ज्यौ टेरै। सुनि सुनि नाद मृगी त्यौ हेरै।।
कबहूँ फिरि आपुस मैं खेलति। सकल सुगंध परस्पर मेलतिं।।
झुके बचन कहती बिनु पाए। कहतिं कछू राधिका लगाए।।
करिनि-भाज बर-बन-भय जैसै। जाइ डुलति बन बन मैं तैसै।।
तब हरि भेष धरयौ जुबती कौ। सुंदर परम भाव तौ जी कौ।।
सारी कचुकि केसरि टीकौ। करि सिंगार नव फूलनि ही कौ।।
कर राजित कंदुक नवला सी। छूटी दामिनि ईषद हाँसी।।
सकल भूमि बन सोभा पाई। सुंदरता उमँगी न समाई।।
ब्रजनारी ता सोभा सौ ही। रही ठगी सी रूप बिमोही।।
एक कहति हरि के से नैना। एक कहति बैसेई बैना।।
बूझति एक कौन की नारी। बिधि की सृष्टि नहीं तू न्यारी।।
तब हरि कहत सुनहु ब्रजबाला। बोलत हँसि हँसि बचन रसाला।।
हम तुम मिलि खेलहिं सब जानति। राधा आली मोहि पहिचानति।।