क्या नव-वधू कभी मुखरा बन -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

अभिलाषा

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राग भैरवी


 
क्या नव-वधू कभी मुखरा बन कर सकती प्रिय से परिहास।
क्या वह मूर्खा या संदिग्धा बन सह सकती मिथ्या त्रास?
क्या वह प्रौढ़ा-सदृश खोल अवगुण्ठन कर सकती रस-भंग?
क्या बहने देती, मर्यादा तजकर, सहसा हास्य-तरंग?
क्या ‘मूकास्वादनवत्‌‌’ होता नहीं प्रेम का असली रूप?
क्या उसमें है नहीं झलकता प्रेम-पयोधि गँभीर अनूप?
क्या है नहीं प्रसन्न इष्ट को मानस पूजा ही करती?
क्या वह नहीं बाह्य पूजा से बढक़र इष्ट हृदय हरती॥
यदि नव प्रेमिक ने तुमको पूजा केवल मन से ही नाथ?
स्तिभत, किपत, मुग्ध हर्ष से कह-सुन कुछ भी सका न नाथ॥
क्या इससे हे प्रेमिकबर प्रभु! हु‌आ तुम्हारा कुछ अपमान!
क्या इसमें अपराध मानते सरल भक्त का हे भगवान!॥
यदि ऐसा है नहीं देव! तो क्यों फिर होते अन्तर्द्धान?
क्यों दर्शन से वञ्चित करते, क्यों दिखलाते इतना मान॥
क्यों आँखों से ओझल होते, पता नहीं क्यों बतलाते?
क्यों भक्तों को सुख पहुँचाने नहीं शीघ्र समुख आते?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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