कैसे तुमको धीरज दूँ मैं समझाऊँ।
जब अपने को ही नित्य धधकता पाऊँ॥
पर उस दिन मैंने देखी बात अनोखी।
तुम बैठी मेरे पास उल्लसित चोखी॥
हँस बोली-’प्यारे ! क्यों उदास तुम होते ?
तुम तो नित मेरे साथ जागते-सोते॥
दिन-रात कदापि न होते मुझसे न्यारे।
करते तुम आठों याम काम सँग सारे॥
मैं रहती तुमको नित्य किये आलिंगन।
तुम कभी न होते विलग पलक, जीवनधन !
रोती मैं बाहर, हूँ अंदर नित हँसती।
मेरी बढ़ती रहती शुचि रसकी मस्ती॥
प्रिय ! दृष्टि लौकिकी में तुम भले न आओ।
पर रहो नित्य ही पास, न पलभर जाओ॥
बिलसो ऐसे ही नित्य, मुझे बिलसाओ।
तुम हँसो, प्राणधन ! मुझको सदा हँसाओ॥