केवल यही चाहतीं-मैं बस, रहूँ देखता उनकी ओर।
बढ़ता रहे नित्य-प्रेमार्णव, रहे कहीं भी ओर-न-छोर॥
पर राधा तो उन सबकी है दिव्याधार-भूमि भावन।
जिसके स्नेह-सुधाका है शुचि एक-एक कण अति पावन॥
निरवधि, नित्य नवीन, नित्य निरुपम, निरुपाधिक, नित्य उदार।
नित्यानन्त-अचिन्त्य-अनिर्वचनीय अतुल रस-पारावार॥
राधा-प्रेम परम उज्ज्वलतम विधि-हरि-हर-अविगत-गति रूप।
परमहंस-तापस-योगी-मुनि-मति-दुर्गम आश्चर्य-स्वरूप॥
पर इससे उसका न तनिक भी परिचय कभी हुआ होता।
बहता सहज तीव्र-गति मञ्जुल मधुर दिव्य यह रस-स्रोता॥
चौंसठ-कला-चतुर स्वाभाविक, पर वह मनकी अति भोली।
नहीं जानती दभ-कपट वह नहिं बनावटी कुछ बोली॥
सहज विनम्र, सरल शुचि अन्तर, निश्छल सुधासनी वाणी।
मधुर सुधास्रावी स्वभावसे आप्यायित सब ही प्राणी॥