कृष्ण-सुखैक-वासना केवल कृष्ण-सुखैक-रूप सब काल।
काम-भोग-वर्जित स्वाभाविक राधा-हृदय रहित जग-जाल॥
महामोह-तम-रजनी-विरहित प्रकट प्रेम-रवि-ज्योति अपार।
कृष्ण-स्मरणपूर्ण शुचि जीवन अर्पित सहज अखिल आचार॥
प्रियतम परम श्याम की स्मृति में हुई राधिका अति तल्लीन।
स्वयं हो गयी ’स्मृतिरूपा’ वह अपनी सुधिसे हुई विहीन॥
श्यामा, श्याम, श्यामकी स्मृति-इस त्रिपुटीका हो गया अभाव।
रहे नहीं आस्वाद्यास्वादन, रहा न आस्वादक का भाव॥
स्मृति, स्मृतिकर्ता के अभावमें उपजा मनमें भाव नवीन।
विस्मय परम हुआ जब दीखा, ख़ाली हृदय सहज स्वाधीन॥
जानें कैसे दीं दिखलायी, भाव भरी आँखें पल एक।
पता नहीं क्यों, जाग उठा कुछ, हार चला सब बुद्धि-विवेक॥
दीखा नेत्र-भावमें उसको रसका बहता विमल प्रवाह।
उसके प्रति आया द्रुत गति से, भरा शून्य उर अमित अथाह॥
उदय हुई जिज्ञासा, थे ये किसके नेत्र सुधा-रस-पूर।
रस-वन्या से किया उसे अति विवश, विचित्र मधुर मद चूर॥
बसे नेत्र, नेत्रों के द्वारा, आकर उर-मन्दिर तत्काल।
बता दिया उन नेत्रोंने, वे नेत्रवान् हैं श्रीनँदलाल॥