श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-चरित्र
हे उद्धव ! इस प्रकार ब्रह्मविवेक के हेतु ब्रह्म की प्रत्यक्ष, अनुमान, निगम आदि उपायों से व्यक्त जानकर और निपुण गुरु के उपदेश से सर्व-प्रपंच निराकरण कर देहाभिमान जनित भेदभाव रूप आत्म सन्देह को अधिकारी पुरुष नष्ट करे, विषयग्राहिणी इन्द्रियों को विषयसंग से निवृत्त करे और आत्मानन्द में सर्वदा सन्तुष्ट रहे, यह समस्त वेदान्तों का सार है। जैसे मघ के आने-जाने से सूर्य को हानि-लाभ नहीं है, इसी प्रकार देह की क्रिया से सम्यक्दर्शी को कोई हानि अथवा लाभ नहीं है, जैसे वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी के गुणों में अथवा आने-जाने वाली ऋतुओं के गुणों में आकाश लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार अहंकार से अतीत आत्मा संसार के हेतु तीनों गुणों से लिप्त नहीं होता, तो भी मेरे दृढ़ भक्तियोग के द्वारा रागद्वेषादि मन के मैल जब तक पूर्णतया नहीं मिट जाते तब तक मयारचित गुणों का संग न करना ही कर्तव्य है। जिस रोग की पूर्णतया चिकित्सा नहीं हुई है, वह रोग जैसे बारम्बार प्रकट होकर मनुष्यों को विशेष पीड़ा पहुँचाता है, इसी प्रकार रागादि मलों से और रागादिजनित कर्मों से जब तक मन पूर्णतया शून्य नहीं हो जाता तब तक वह संगासक्त कुयोगी को बारम्बार चलायमान करता रहता है। हे उद्धव ! जो कच्चे योगी दैवप्रेरित विघ्रों द्वारा अपने मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हें, वे जन्मान्तर में पूर्व अभ्यास के बल से योग में ही निरत होते हैं, कर्मकाण्ड में प्रवृत्त नहीं होते। अविद्वान जीव किसी संस्कार आदि की प्रेरणा से मृत्यु पर्यन्त कर्म करता है और विकार को प्राप्त होता है किन्तु विद्वान जीव, शरीर में अवस्थित होकर भी आत्मानन्द सम्भोग द्वारा तृष्णाशून्य होकर शरीर और शरीर सम्बन्धी विषयों में आसक्त नहीं होता। जिसकी बुद्धि आनन्द स्वरूप आत्मा में अवस्थित है, वह बैठते, चलते, सोते, विसर्जन करते, भोजन करते और स्वभाव सिद्ध दर्शन, श्रवण, स्पर्श आदि करते हुए भी शरीर और शरीर के कार्में को शरीर में अवस्थित होकर भी नहीं जानता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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