श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-चरित्र
श्रीभगवान—हे उद्धव ! ज्ञानी को चाहिये कि प्रकृति और पुरुष दोनों से युक्त विश्व को देखता हुआ किसी के भले-बुरे स्वभाव अथवा भले-बुरे कर्मों की प्रशंसा या निन्दा न करे। जो कोई किसी की निन्दा या प्रशंसा करता है, वह असत् द्वैत के अभिनिवेश से शीघ्र ही ज्ञाननिष्ठा रूप स्वार्थ से भ्रष्ट हो जाता है। इन्द्रियाँ राजस-अहंकार का कार्य हैं, निद्रा से उनके दब जाने पर जैसे देहस्थ जीव स्वप्ररूप माया अथवा सुषुप्तिरूप मृत्यु को प्राप्त होता है, इसी प्रकार द्वैत विषय में अभिनिवेश करने वाला भी विक्षेप और लय को प्राप्त होता है। जब द्वैत मिथ्या ही है तो उसमें भला-बुरा क्या और कितना ? जो केवल वाक्य द्वारा कहा जाता है और मन के द्वारा चिन्तन किया जाता है वह सब मिथ्या है, परमार्थ नहीं है। जैसे प्रतिविम्ब, प्रतिध्वनि और भ्रम अवस्तुरूप होने पर भी वस्तु रूप मानने से अनर्थ का कारण होते हैं, इसी प्रकार देहादि असत् पदार्थ भी सत् मानने से मृत्यु पर्यन्त भयदायक होते हें। वह प्रभु ईश्वर आत्मा ही इस विश्व रूप से उत्पन्न होता है और स्त्रषारूप से सृष्टि करता है। स्वयं पालित होता है और स्वयं ही पालन करता है। स्वयं लीन होता है और स्वयं ही लय करता है। इसलिये आत्मा से भिन्न कोई पदार्थ ही नहीं है। आत्मा में यह अध्यात्म, अधिभूत और अधिदेव की प्रतीति भ्रान्तिमात्र अमूलक है। यह त्रिविध गुणमयी प्रतीति मायाकृत है। तत्वदर्शी प्रवीण पुरुष न किसी की स्तुति करता है, न किसी को निन्दा करता है, वह तो सूर्य-चन्द्र के समान सर्वत्र समभाव से सर्वदा विचरता है। अतएव प्रत्यक्ष, अनुमान और शास्त्र-प्रमाण द्वारा तथा अपने अनुभव द्वारा आनन्द स्वरूप आत्मा से भिन्न समस्त पदार्थों को आदि- अन्त वाले और असत् जानकर उनका संग त्याग विवेकी पुरुष को इस लोक में सुख से विचरना चाहिये। उद्धव—हे भगवन ! आत्मा तो निर्गुण, विशुद्ध, ज्योतिस्वरूप, आवरणशून्य, असंग और अविनाशी है एवं देह अचेतन यानी काष्ठसम जड़ है, तो फिर इस संसार की उपलब्धि किसको होती है ? श्रीभगवान— हे उद्धव ! जब तक शरीर, इन्द्रिय और प्राणों से आत्मा का सम्बन्ध रहता है तब तक यह संसार असत् होने पर भी अविवेकियों को सत्य प्रतीत होता है। जैसे स्वप्रावस्था में सब पदार्थ मिथ्या होने पर भी स्वप्रद्रषा के सुख-दु:ख का कारण होते हैं, वैसे ही संसार और संसार के विषयों का ध्यान करते रहते हैं, उनका जन्म- मरणरूप संसार निवृत्त नहीं होता। जैसे निद्रादोष से स्वप्न में दीखने वाले पदार्थ जागने पर मिथ्या है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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