श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-चरित्र
यादवगण मुख देखते ही लोगों के मन का भाव ज्ञान जाते थे। ऐसे निपुण होने पर भी उन्होंने श्रीकृष्ण को भगवान नहीं समझा, यदुश्रेष्ठ मानकर ही वे उनका मान करते रहे, यह बडे़ ही आश्चर्य बात है ! परमेश्वर की माया महान प्रबल है, इसी माया से मोहित हुए यादवगण श्रीकृष्ण को ईश्वर न जानकर अपना बन्धु मानते थे और इसी माया के प्रभाव से शत्रु भाव को प्राप्त हुऐ शिशुपाल आदि श्रीकृष्ण की निन्दा करते थे। परन्तु इन मूढ़ विषयासक्त मनुष्यों के वाक्यों से भगवच्चरणासक्त विद्वान पुरुषों की बुद्धि कभी मोहित नहीं हो सकती, क्योंकि भगवद्भक्तों के पास माया बिलकुल फटकती ही नहीं। जिन्होंने तप नहीं किया जिनके अन्त:करण शुद्ध नहीं हैं और श्रीकृष्ण स्वरूप को देखकर जिनके नेत्र तृप्त नहीं हुए, ऐसे लोगों को श्रीकृष्णजी ने अपना लोक-लोचन ललित स्वरूप दिखाकर पृथ्वी पर से अपने उस कमनीय कलेवर को अन्तर्हित कर लिया। लोगों की दृष्टि से अपनी मोहिनी मूर्ति को ओझल कर लिया ! हे विदुर ! भगवान की वह मूर्ति अत्यन्त ही आश्चर्यजनक थी। भक्तवत्सल, दुषृदलन भगवान ने योगमाया को ग्रहण करके इस मूर्ति को धारण किया था। यह मूर्ति अतिशय भाग्य की पराकाष्ठा और मानव-लीला के उपयुक्त थी, स्वयं भगवान ही अपनी अपूर्व मूर्ति को देखकर विस्मययुक्त हो जाते थे तो दूसरों का विस्मित होना कौन बड़ी बात है ? भूषणों को भी भूषित करने वाले श्याम शरीर प्रभु के अंग परम मनोहर थे। उन्होंने नेत्रानन्दकर श्रीकृष्ण का सुन्दर कलेवर देखकर यही निर्णय किया था कि सृष्टि के रचने में विधाता की जितनी चतुराई है, वह सारी इस मूर्ति के सामने तुच्छ है ! हे कुरुकुलचन्द्र ! जब भगवान के अनुराग युक्त हास-परिहास और लीलायुक्त विनोद को देखकर व्रजबालाओं ने मान किया और जब श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये, तब व्रज सुन्दरियाँ घर के सब कार्य त्यागकर उन्हीं की ओर देखती खड़ी रह गयीं और उनके मन तो भगवान के पीछे ही चले गये। जब दुषृजन सज्जनों को पीड़ा देने लगे, तब अनुग्रह करके चराचर के स्वामी परमेश्वर अजन्मा होकर भी अपने पूर्ण अंश से शरीर धारण करके जैसे महत्तत्व- रूप से नित्य सिद्ध अग्नि काष्ठों में प्रकट होता है, इसी प्रकार पृथ्वी पर प्रादुर्भुत हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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