श्रीकृष्णांक
साक्षात परब्रह्म का आविर्भाव
अब यहाँ एक प्रश्न यह होता है कि यद्यपि वेदोक्त परब्रह्म के धर्म श्रीकृष्ण के स्वरूप में वर्णित हैं और दृष्ट भी हैं तथापि ʻएष अज महानात्माʼ ʻनिष्कलं निष्क्रियम्ʼ आदि श्रुतियों में परब्रह्म को अजन्मा कहा हे, निरवयव (निराकार) कहा है और श्रीकृष्ण के जन्म का वर्णन श्रीमभागवत में स्पष्ट है तथा श्रीमदभागवत में ही श्रीकृष्ण को साकार कहा है तो दोनों तरह से ब्रह्म के स्वरूप में अनित्यत्व दोष आता है। इसका उत्तर सूत्रकर्त्ता श्रीवेदव्यास ने ही दे दिया है। ʻउभ्यव्यपदेशात्वहिकुण्डलवतʼ इत्यादि सूत्रों में स्पष्ट कहा है कि परब्रह्म अपने सामर्थ्य से ही साकार और निराकार दोनों प्रकार का हो सकता है। दिव्य और आनन्दरूप आकार अनित्य नहीं हो सकते। आनन्दरूप ब्रह्म है और आनन्द रूप ही उसके आकार हैं, इसलिये स्वरूप भूत होने से अनित्य की शंका भी नहीं हो सकती। ʻआप्रणखात् सर्व एवं सुवर्ण:ʼ ʻमोदो दक्षिण: पक्ष:ʼ ʻप्रमोद उत्तर: पक्ष:ʼ इत्यादि श्रुति में ब्रह्म को आनन्दाकार भी कहा ही है। वेद ही ब्रह्म के विषय में बलवत् प्रमाण है, प्रमाण के अनुसार ही प्रमेय का निर्णय करना उचित है। और यह निर्णय भी वेदव्यास ने अपने ʻकृत्स्न-प्रसक्तिर्निरवयवत्वशब्द व्याकोपो वाʼ ʻश्रुतेस्तु शब्दमूलत्वात् ʼ मीमांसा-सूत्रों में कर दिया है। पहले सूत्र से निरवयव (निराकार) होने की शंका की है और दूसरे सूत्र से श्रुति को ही बलवत् प्रमाण मानकर निरवयव और सावयव दोनों तरह का ब्रह्म है किंवा सावयव होने पर भी उसकी अचिन्त्य सामर्थ्य कृत्स्नप्रसक्ति (सब-का-सब पूरा हो जाना) नहीं हो सकती, यह समाधान किया है। क्योंकि ब्रह्म के विषय में श्रुति ही प्रमाण है, युक्ति का वहाँ प्रवेश ही नहीं। भगवदगीता भी ʻअनेक बाहूदर वक्त्रनेत्रम्ʼ कहकर ʻनान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामिʼ कहा है और ʻअनादि मध्यान्तमनन्तवीर्यम् ʼ कहकर ʻशशिसूर्यनेत्रम्ʼ कहा है, इसलिये मालूम होता है कि श्रीकृष्ण को भी दिव्य साकार मानकर ही व्यापक माना है। श्रीकृष्ण के सब अवयव आनन्द रूप ही है, ब्रह्म के स्वरूप से उसके अवयव भिन्न नहीं हैं। श्रीकृष्ण के सर्व आकार अलौकिक हैं, अप्राकृत हैं, दिव्य हैं, आनन्दरूप हैं, अतएव स्वरूप भूत हैं इसलिये वे अनित्य नहीं हो सकते। ʻअनुच्छित्तिधर्माʼ इत्यादि श्रुतियाँ ब्रह्म के सब धर्मों को नित्य कह रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |