श्रीकृष्णांक
साक्षात परब्रह्म का आविर्भाव
अब यहाँ एक प्रश्न यह उपस्थित हो सकता है कि जब श्रीकृष्ण परब्रह्म पुरुषोत्तम हैं, तो फिर छान्दोग्यादि उपनिषद् में उनकी लीला और उनके स्वरूपो का वर्णन क्यों नहीं आता? क्योंकि परब्रह्म के स्वरूप और उसकी लीलाओं का वर्णन करने के लिये ही वेद है। इसका उत्तर इतना ही है कि परब्रह्म पुरुषोत्तम का दो प्रकार स्वरूप है- एक प्रकट और दूसरा अप्रकट। अप्रकट स्वरूप का नाम परब्रह्म पुरुषोत्तमादि है। वह प्रकट नहीं है और सर्वत्र गुप्ततया व्याप्त है, अतएव उसे पर या ब्रह्म कहते हैं। किन्तु जब वही परब्रह्म किसी समय साधन-निरपेक्ष मुक्तिदान करने के लिये लोक में प्रकट होता है तब उसके नाम श्रीकृष्णादि होते हैं। दोनों प्रकार के स्वरूपों का वर्णन उपनिषदों में है और प्रकट परब्रह्म का वर्णन श्रीवासुदेवोपनिषद् या श्रीकृष्णोपनिषद् में है। अप्रकट सर्वदा रहता है, इसलिये उसका वर्णन बहुत-सी उपनिषदों में है किन्तु प्रकट तो किसी समय ही होता है, इसलिये उसका वर्णन दो-एक उपनिषदों में ही है। ʻरसो वै स: ʼʻअनन्तं ब्रह्मʼ ʻनान्य: पन्था विद्यतेऽयनायʼ ʻपरात्परं पुरुषमीक्षतेʼ इत्यादि श्रुतियों से उक्त रसरूपता, अनन्तता, सर्वाश्रयता और परात्परता आदि ब्रह्मधर्म भी श्रीकृष्ण के स्वरूप में श्रीगीता और भागवत और प्रत्यक्ष दर्शन के द्वारा स्पष्ट कहे गये हैं। ʻसुखस्यैकान्तिकस्य चʼ ʻनान्तो न चादिनं च संप्रतिष्ठाʼʻनिवास:शरणं सुहृत्ʼ ʻमत्त: परतंर नान्यत्ʼ गीता में और श्रीमद्भागवत में योग-विप्रयोग- रसरूपता एवं रसाश्रयता का रासलीला में श्रीगोपिकाओं ने स्वयं अनुभव किया है और वर्णन भी किया है। रसशास्त्रवेत्ता सब विद्वान श्रीकृष्ण को ही रसाश्रय और रसाधिदेवता मानते हैं। श्रीकृष्ण की अनन्तता का दर्शन स्वयं अर्जुन ने किया और श्रीयशोदा ने भी उलूखल-बन्धनलीला में किया है। एवं श्रीकृष्ण की परात्परता भी ब्रह्मस्तुति, इन्द्र स्तुति में स्पष्ट है। युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ के सर्वप्रथम पूजन में इसको सबने प्रत्यक्ष देखा था और सर्वाश्रयता (सर्वाधारत्व)- का भी मृत्सा-भक्षण के समय श्रीयशोदा ने प्रत्यक्ष अनुभव किया था। गोवर्धन धारण, दावानलपान प्रभृति लीला भी ईश्वरत्व बोधक है ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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