श्रीकृष्णांक
साक्षात परब्रह्म का आविर्भाव
इसी प्रकार सर्वत्र व्यापक भगवान भक्त के उत्कट भाव से जब उस श्रीमूर्ति पधारते हैं तब वह श्रीमूर्ति भगवान का साक्षात्स्वरूप हो जाती है। अब जो उस स्वरूप में स्नान-श्रृंगार भोग-प्रभृति उपचार करने में आते हैं वह सब साक्षात भगवान में ही किये जाते हैं। और भगवान भी कृपाकर उसकी भक्ति के वश होकर उसके किये हुए उन-उन उपचारों को ग्रहण करते हैं यह निश्चय है। श्रीमूर्ति तीन प्रकार की होती है- अन्यकृता, मन:- स्थापिता और स्वयमुद्भूता। सिलावट सुनार-प्रभृति के द्वारा शास्त्र और प्रमाणिक प्रसिद्धि के अनुसार बनायी हुई अन्यकृता है। अपने मन की प्रीति के अनुसार पूर्व में अपने मन में आवाहन करके पुन: किसी भी पवित्र पदार्थ में स्थापन की हुई मन:स्थापित है, और पर्वत-समुद्र आदि से स्वयं प्रकट हुई श्रीमूर्ति स्वयमुदूभता है। सोने की, चाँदी की, लोहे की, चित्ररूप, लीपकर बनायी, मिट्टी से बनायी, मन में तैयार की और पन्ने वगैरह रत्नों से बनायी गयी; इस तरह प्राय: 8 प्रकार की श्रीमूर्तियाँ होती हैं। ये शालग्रामादि श्रीमूर्तियाँ सब श्रीहरि का अर्चावतार हैं। इस रूप से जीवों के उद्धार करने के लिये परब्रह्म इनमें उतरता है- प्रकट होता है। इन मूर्तियों में भी जहाँ प्रभु की नित्य स्थिति रहती है वह अवतार कहा जाता है जैसे शालग्राम-प्रभृति। और जहाँ आवाहन-विसर्जन होने से नित्य स्थिति नहीं होती वह आवेश कहलाता है जैसे पार्थिवपूजा के शिव-प्रभृति। कभी-कभी परब्रह्म परमात्मा ही जगद्रचना करने के लिये एक रूपान्तर धारण करता है वह अक्षरब्रह्म है। यह अक्षर भी और इससे बना हुआ जगत भी यद्यपि अवतार या आविर्भाव ही है तथापि इन दोनों की लोक में अवताररूप से प्रसिद्धि नहीं है क्योंकि भगवान जगत के उद्धार के लिये और अपनी विशेष लीला के लिये अवतार लेते हैं। अक्षरब्रह्म और जगत् दोनों का जगदुद्धार और विशेष लीला कार्य नहीं है इसलिये इनकी अवताररूप से प्रसिद्धि नहीं है। 28 शुद्ध तत्व हैं और उतने ही अशुद्ध तत्व भी हैं और उनमें भी भगवान सामर्थ्यदान के लिये उतरते हैं तथापि उनमें असाधारण या विशेष लीला न होने से उनकी भी अवताररूप से प्रसिद्धि नहीं है। यद्यपि शास्त्र में कहीं-कहीं सम्पूर्ण सृष्टि को और उसमें वर्त्तमान पदार्थों को अवतार कहा है किन्तु ʻलीलावतारान् पुरुषास्य भूम्र:ʼ इस विशेष शास्त्र के अनुसार और ʻश्रवणस्मरणार्हाणि करिष्यन्ʼ इत्यादि निर्णय शास्त्रों के अनुसार जिन अवतारों का जगदुद्धार और विशेष लीला ही कार्य है उन्हीं की अवतार रूप से प्रसिद्धि है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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