श्रीकृष्णांक
साक्षात परब्रह्म का आविर्भाव
इस तरह शुद्ध सत्व और अशुद्ध सत्त्व दोनों हैं। उनमें से शुद्ध सत्व को आसन या श्रीविग्रह बनाकर जब भूमा[1] पुरुष (अन्तर्यामी) उतरता है तब वह भी भगवदवतार (पुरुषावतार) कहा जाता है। इस पुरुष के अवतार चौबीस हैं। प्राकृतिक[2] गुणों को आसान या श्रीविग्रह बनाकर जब परमपुरुष उतरता है तब वे गुणावतार कहे जाते हैं। ब्रह्म, विष्णु और शिव ये गुणावतार हैं, इस तरह यदि विचार किया जाय तो भगवान का एक अर्चावतार भी होता है। श्रीशालग्राम किंवा श्रीमूर्तियाँ सब प्रभु का अर्चावतार है। स्वरूप (श्रीमूर्ति)- की सेवारूप साधन के द्वारा जीवों का उद्धार करने के लिये श्रीमूर्ति को आधार बनाकर जो प्रभु का तद् रूप से उतरना वह अर्चावतार कहा जाता है। ज्ञानमार्ग, उपासना मार्ग और भक्तिमार्ग तीनों की दृष्टि से श्रीमूर्ति भगवान का अवतार (भगवान) है। ʻसर्वं खल्विदं ब्रह्मʼ इस श्रुति के अनुसार सम्पूर्ण जगत ही जब ब्रह्मरूप है तब श्रीमूर्ति भी भगवान है या भगवान का अवतार है, यह तो ठीक ही है। उपासना- दृष्टि से भी श्रीमूर्ति भगवान ही है। अज्ञान से यदि जीव को श्रीमूर्ति (भगवान) न मालूम देती हो किन्तु आस्तिक को शास्त्र की विधि के बल से उसमें ब्रह्मदृष्टि करके जो पूजा- सत्कार आदि किये जायँ वह उपासना कही जाती है। इस उपासना दृष्टि से भी श्रीमूर्ति अर्चावतार है, क्योंकि सेवा-पूजा के मन्त्रों के वश होकर उन मन्त्रों की प्रमाणवता की और उपासकों के स्नेह की रक्षा करने के लिये प्रभु उस श्रीमूर्ति में स्थित सबकी पूजा को ग्रहण करते हैं। भक्तिमार्ग में भाव प्रधान है। ʻरतिर्देवादिविषया भाव इत्यभिधीयतेʼ देवता में जो हृदय की प्रीति है, वह भाव कहा जाता है। इस शास्त्र के अनुसार जिस क्षण में जिस भक्त का जिस मूर्त्ति में हृदय का भाव हुआ उसी क्षण से उस भक्त के लिये उस मूर्त्ति में प्रभुका अवतार हो जाता है। उसके भाव के अनुसार उस श्रीमूर्ति में अग्नि की तरह भगवान पधारते हैं। लोहे के गोले में जब अग्नि उतरता है तब वह उस लोहे के गोले में बाहर-भीतर सर्वत्र प्रविष्ट होकर उसे अपने भीतर कर लेता है अर्थात सब तरह से उसे अग्निरूप बना लेता है। अब जो कोई लोहे के गोले का स्पर्श करता है तो अग्नि का स्पर्श होता है, लोहे के गाले का नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ लीलावतारान पुरुषस्य भूम्न:' श्रीभा० स्कं० 2। ते च पुनरवतारा: कस्येत्यपेक्षायां यस्तु भूमा पुरुषो ब्रह्माण्डाद्क़धिकोऽतर्यामिरूपो द्वितीयाध्याय उक्तस्तस्यावतारा:। सुबोधिनी।
- ↑ सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्गुणास्तैर्युक्त: पर: पुरुष एक इहास्य धत्ते। श्रीभागवत स्कं० 1।
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