श्रीकृष्णांक
साक्षात परब्रह्म का आविर्भाव
वराह, नृसिंह, दत्त, पृथु-प्रभृति अवतारों में कितने ही स्वरूपावतार हैं, कितने ही धर्म के अवतार हैं, कितने ही आवेशावतार हैं। किन्तु ये सब चौबीसों अवतार भूमा पुरुष जिसे अन्तर्यामी भी कहते हैं, उसके अवतार हैं। जैसे सार्वभौम[1] राजा अपने देश में पर्यटन करने निकले तो वह कभी अपने लिये अपने ही बनवाये हुए स्वकीय गृहों में निवास करता है, किन्तु जिस समय सार्वभौम की वैसी मर्जी हो तो कभी-कभी अपने किसी आत्मीय के घर में भी ठहर जाता है, उस समय वह स्वकीयजन का गृह भी राजा के वर्तमान रहने तक राजगृह कहा जाता है। राजा की चले जाने के बाद वह गृह फिर जिसका था, उसी का कहलाता है। इसी तरह शुद्ध सत्व (ऐश्वरीय सत्व)- को आसन या शरीर बनाकर जो भगवान का उसमें सर्वदा के लिये उतरना है, वह अवतार है। और कार्य करने मात्र के काल में रहकर पुन: तिरोहित हो जाना, यह कार्यकालीन आवेश आवेशावतार कहा जाता है। शुद्ध सत्व एक तरह का चैतन्य का (ज्ञानशक्ति का) ही विभेद है। श्रीभागवत के द्वितीय स्कन्ध में कहा है कि ʻजिस[2] प्रकार ऊर्णनाभि (मकड़ी) सृष्टि के लिये (जाला बनाने के लिये) अपने स्वरूप से ही एक ऊर्णा (तन्तु) निकालती है इसी तरह निर्गुण भगवान भी त्रिविध सृष्टि बनाने के लिये अपने स्वरूप को ही तीन गुणरूप कर लेते हैं। सद्रूप से जो निकला वह सत्व है। क्रिया प्रधान होकर अतएव तिरोहित सदानन्दांश होकर जो निकला वह रज कहलाया और केवल आनन्दरूप होकर जो निकला वत तम कहलाया। ये तीनों गुण होकर निकल, इसलिये, इन्हें गुण कहते हैं और केवल ब्रह्मस्वरूप होने से शुद्ध कहे जाते हैं। इन आत्मरूप अतएव शुद्ध गुणों के द्वारा जो सृष्टि हुई वह ब्रह्मरूप आधिदैविक सृष्टि हुई और वह प्रथम सृष्टि थी। ब्रह्मकल्प पहला है। उस पहले ब्रह्मकल्प में यह प्राथमिकी ब्रह्ममयी सृष्टि हुई है। इस समय की सृष्टि में सबका एक हंस नामक वर्ण ही था। तदनन्तर पाद्मकल्पादि में सृष्टि का स्वरूप बदला, उस समय भगवान ने अपनी माया (सर्वभवनसामर्थ्य)- को कारण बनाकर सृष्टि की रचना की किन्तु माया के पास अपना कोई साधन न होने से उसने प्रभु से उन तीनों गुणों को ग्रहण किया। जगत की स्थिति के समय सत्त्व का, उत्पत्ति के समय रजस् का और संहार के समय तमस् का उपयोग किया। बस, माया के पास होकर आने से व गुण प्राकृतिक, मायिक या अशुद्ध कहलाये। जगत की स्थिति के समय सत्व का, उत्पत्ति के समय रजस् का और संहार के समय तमस् का उपयोग किया। बस, माया के पास होकर आने से व गुण प्राकृतिक, मायिक या अशुद्ध कहलाये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यथा महाराज्: स्वदेशे पर्यटन स्वार्थं निर्मितेषु गृहेषु तिष्ठति कदाचित्स्वकीयस्यापि गृहे, तदा तत्सिथतिपर्यंतं तद गृहमपि राजगृहं भवति। अतो विशेषाभावादावेशावतारयोस्तुल्यतया गणना। नि० भा० प्र० 49 कारिका।
- ↑ सत्त्वं रजस्तम इति निर्गुणस्य गुणास्त्रय:। स्थितिसर्गनिरोधेषु गृहीता मायया विभो:। भा० स्क० 2-5-19 सुबोधिनी।
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