श्रीकृष्णांक
साक्षात परब्रह्म का आविर्भाव
यदि उपर्युक्त प्रयोजन हो तो भगवान के अवतार सर्वत्र और हजारों हो सकते हैं। यद्यपि चौबीस, दस या एक अवतार प्रसिद्ध है किन्तु अवतार अगणित हुए हैं और हो सकते हैं। अवतारों की गणना नहीं हो सकती। जिस तरह अक्षय-तल जलाशय में से अगणित नहरें निकल सकती हैं इसी तरह सर्वव्यापक परमेश्वर के अनन्त अवतार हो सकते हैं। परब्रह्म (पुरुषोत्तम), अक्षरब्रह्म और अन्तर्यामी ये तीनों पदार्थ एक ही हैं, क्योंकि भिन्न–भिन्न कार्य करने के लिये एक ही श्रीपुरुषोत्तम ने यह तीनों रूप ग्रहण किये हैं। इन तीनों को वेद में, कठवल्ली प्रभृति में अनेक जगह केवल पुरुष शब्द से भी कहा गया है। परब्रह्म के इन तीनों रूपों के भी अवतार होते हैं। जिस प्रकार परब्रह्म के ये तीन रूप हैं, इसी तरह उसके आनन्द, ज्ञान और क्रिया ये तीन धर्म भी हैं। कभी-कभी इन धर्मों के अवतार भी होते हैं यह हम आगे विस्तार से कहेंगे। ऐसे अवतार को अंशावतार या कलावतार भी कहते हैं। अशुद्ध किंवा शुद्ध सत्त्व को आसान या स्थान बनाकर उसमें जो परब्रह्म के स्वरूप का या उसके धर्म का उतरना, अर्थात सब आवरणों (परदा या ढक्कन)-को हटाकर जो अपने इच्छित लोक में प्रकट होना वह ʻअवतारʼ कहा जाता है। पूर्वोक्त प्रकार से ही श्रीपुरुषोत्तम का या उसके धर्मों का यह अवतार (उतरना) किसी कार्य के अनुसार थोड़े समय रहकर कार्यानन्तर तिरोहित हो जाय तो उसे अवेशावतार या आवेश कहते हैं। इस आवेश और अवतार को समझाने के लिये दृष्टान्त में श्रीवेदव्यास (कृष्णद्वैपायन) को लेते हैं। श्रीवेदव्यास, भगवान परब्रह्म के ज्ञानधर्म के अवतार भी हैं और आवेश भी हैं।[1] वेदव्यास जी में प्रथम भगवान के ज्ञान का अवतार हुआ, इसलिये व्यास जी अवतार कहे जाते हैं। वेदों का व्यास, महाभारत का निर्माण एवं कतिपय पुराणों का आविर्भाव यह अवतार का ज्ञानकार्य उन्होंने किया। किन्तु जब नन्दालय में श्रीपुरुषोत्तम का (श्रीकृष्ण का) आविर्भाव हुआ तब उनके (श्रीकृष्ण के) चरित्र, लीला और स्वरूप का वर्णन करने के लिये और उनके (श्रीकृष्ण के) तिरोधानान्तर भी उनकी (श्रीकृष्ण की) नामलीला द्वारा जीवों का उद्धार करने के लिये भगवान ने व्यास जी के उसी अवतार में कुछ और भी विशेष आवेश किया तब वे आवेशान्तर कहलाये। यह आवेश श्रीकृष्ण के तिरोधानानन्तर अथवा श्रीभागवतरचनानन्तर जाता रहा तब श्रीव्यास जी केवल अवतार रह गये थे। इसलिये वेदव्यासजी भगवान के (ज्ञान के) अवतार और आवेश हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सत्त्वरूपषरीरेषु ब्रह्मण: संक्रम: स्मृत:। अशुद्धशुद्धभेदेन शरीराणामतो द्विधा। कार्यकाले संक्रमणमावेश: सर्वदा परम्। भा० 1-3-सुबो० कारिका। स्वयं भूत्वा हरि: कृष्ण: स्वाशं व्यासं चकार हि। स्वज्ञापनाय भक्तानां पदप्राप्त्यै तत: परम्। (तत्त्वदीप:))
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