श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण
संगीत तो सीखा उज्जैन के आचार्य कुल में जाकर, परन्तु कालिय-मथन का नृत्य किसने सिखाया ? गोप और गोपियों का हृदयाकर्षक संगीत कहाँ से आया ? त्रिभुवनमोहनी मुरली की शिक्षा किसने देी ? गोकुल-भर में किसी दूसरे मुरलीधर की तो चर्चा ही नहीं मिलती। घोड़े हाँकने में मातलि (इन्द्र के सारथि) –को भी मात करने की करामात इन्हें किसने दी थी ? जिस समय आदित्य ब्रह्मचारी भीष्म ने युद्ध में प्रलय दावानल के समान विकरालरूप धारण करके पाण्डवों की सेना का विध्वंस आरम्भ किया था, तब उनके सामने से इन्हीं ने अपने अश्रवचालन- कौशल के बल पर अर्जुन को सही-सलामत बचाया था, जिसे देखकर मातलि भी दंग रह गया था। सभी महारथियों ने और खासकर भीष्म पितामह ने भी-दाँतों तले हँगली दबाकर उस सारथित्व की दाद दी थी। भला बताइये तो सही कि इस प्रकार की कुशलता प्राप्त करने के लिये श्रीकृष्ण ने कौन-सी सड़कों पर घोड़े दौड़ाने का अभ्यास किया था ? अच्छा, इन सब बातों को छोडि़ये। जरा ʻभगवतगीताʼ की ओर तो दृष्टि उठाकर देखिये। केवल चौंसठ दिन की पढ़ाई-लिखाई के ज्ञान का पुस्तक नहीं ? पांच हजार वर्ष बीत जाने पर भी-अनेक कवि, महर्षि, आचार्य और ग्रन्थकारों का आविर्भाव ही जाने पर भी अब तक गीता के जोड़ की दूसरी पुस्तक न बन सकी। इस गीता-निर्माण के पूर्व भी कोई ऐसी पुस्तक थी, इसका भी तो प्रमाण-नहीं मिलता। इसके जोड़ की पुस्तक बनाने की तो बात ही छोडिये। जिन भगवान शंकराचार्य को आज भी बड़े-बड़े़ ज्ञानी (देशी तथा विदेशी भी) संसार का अद्वितीय दार्शनिक मानते हैं, उन्होंने भी भगवत गीता के चरणों में मस्तक रगड़ने में ही अपना अहोभाग्य समझा है। जब भगवान शंकर जैसे दिगन्त-विश्रान्त-कीर्ति आचार्य का यह हाल है तो दूसरों का तो बात ही क्या ? ʻकिं तत्र परमाणुवै यत्र मज्ज्ति मन्दर:ʼ। औरों ने भी इन्हीं का अनुकरण किया है ओर अपने मत को गीता के अनुकूल बताने में ही अपने को कृत्कृत्य समझा है। गीता वह अगाध सरोवर है कि जिसने इसमें जितनी ही गहरी डुब की लगायी उसको उतनी ही अधिक शान्ति और सन्तोष प्राप्त हुआ। यह वह कामधेनु है जिसने सभी सेवकों को सन्तोष प्रदान किया है। यह वह कल्पवृक्ष है कि जो जैसी भावना लेकर इसके आश्रित हुआ उसे वैसा ही फल मिला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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