श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण
अनागत के गर्त में प्रच्छन्न थी; वह भी अर्जुन को प्रत्यक्ष दीख पड़ी। इसीलिये तो अर्जुन को समझाते हुए भगवान ने कहा था कि ʻइन सबको तो मैंने ही मार रखा है, हे अर्जुन ! तुम निमित्त मात्र होकर यश के भागी बनो।ʼ भगवान श्रीराम के समान श्रीकृष्ण को प्रौढ अवस्था प्राप्त होने पर अपनी शक्तियों का भान हुआ है,यह बात नहीं है। यह तो जन्म से ही ʻहजरतʼ थे। यहाँ अर्जुन को विराट रूप दिखाकर कर्तव्य का ज्ञान कराया, उधर कौरवों की सभा में सन्धि का प्रस्ताव करते समय जब कर्ण, दु:शासन और दुर्योधन आदि ने इन्हें (भगवान श्रीकृष्ण को) अकेला समझकर बाँध लेने की गुप्त मन्त्रणा की तो आपने यह कहते हुए कि- ʻबच्चा ! मुझे अकेला न समझो, मेरे साथ यहाँ भी बहुत कुछ हैʼ- एक विकट अट्टहास करके अपने शरीर में वह विश्वरूप दिखाया कि विरोधियों की फूँक निकल गयी। शैशवकाल में जब माता यशोदा ने इन्हें खाते देखकर डाँटा और मुँह खोलने को कहा तो आपने मुँह खोलकर समस्त ब्रह्माण्ड अपने पेट में दिखा दिया। वह बेचारी सीधी-सादी ग्वालिन, हक्की-बक्की-सी होकर चौंधिया गयी और सोचने लगी कि समस्त पृथ्वी जिसके पेट में समायी हुई है, वह यदि जरा-सी मिट्टी खा ही लेगा तो क्या विकार हो सकता है? बात की बात में आपने अपनी माया समेट ली। यशोदा सब बातें भूल गयीं और बालकृष्ण को कोरा शिशु समझकर वात्सल्य–रस से परिपूर्ण हो गयीं। तात्पर्य यह कि भगवान श्रीकृष्ण को कठिन तपस्या, योगाभ्यास या वनवास आदि के द्वारा कोई सिद्धि प्राप्त हुई हो, यह बात नहीं है। विश्वामित्र या अगस्त्य आदि महर्षियों के समान इन्हें किसी ने दिव्य अस्त्र या ʻबलाʼ ʻअतिबलाʼ आदि विद्याएँ देने की कृपा नहीं की। इन्हें इसकी आवश्यकता भी नहीं थी। यह तो ʻलीला-पुरुषोत्तमʼ थे। इन्होंने जन्म से ही अलौकिक लीलाएँ आरम्भ कर दी थीं। बिना सीखे-पढे़ ही शकटासुर और पूतना आदि का शिकार करना शुरू कर दिया था। जिस अवस्था में बच्चों को लंगोटी बाँधने की भी सुध-बुध नहीं हुआ करती- और शायद यह भी वैसे ही घूमा करते हों तभी से आपने अनेक असुरों की मरम्मत करना आरम्भ कर दिया था। इनका तो बिना सीखे-पढे़ ही यह हाल था। फिर यह सीखते भी कब और कैसे? इनके जन्म से भी बहुत पहले से कंस की विकराल दृष्टि इनकी खोज में लगी थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |