श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण
ʻहे अर्जुन ! समस्त सृष्टि का आदिकारण मैं ही हूँ। संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो मुझसे रहित हो। जगत में जहाँ-जहाँ वैभव, तेज और लक्ष्मी दीखती है वह सब मेरी ही विभूतिका अंश समझो। अथवा बहुत-सी बातों से क्या मतलब, तुम संक्षेप में यह समझों कि इस समस्त ब्रह्माण्ड की मेरे एक अंश ने घेर रखा है। ʻत्रिपादूर्ध्वमुदैत्पुरुष: पदोऽस्येहाऽभवत् पुन:ʼ वेद ने कहा है कि भगवान का केवल एक चातुर्थांश इस भूत-भौतिकमयी समस्त सृष्टि को व्याप्त किये हुए है और तीन अंश इससे बाहर हैं। अर्जुन का सन्देह दूर करने के लिए विराट-स्वरूप का दर्शन कराते समय भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि—इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्। हे अर्जुन ! चर और अचर सम्पूर्ण जगत को तुम मेरे इस (विराट) शरीर में देंखो और इसके अतिरिक्त जो कुछ और देखना चाहते हो वह भी देखो। कोई पूछे कि निखिल ब्रह्माण्ड (सचराचर जगत) देखने के बाद और बचा नही क्या जिस अर्जुन देखना चाहेंगे ? भगवान यह क्या कह रहे हैं ? चर और अचर अर्थात चेतन और जड़ अथवा प्रकृति और पुरुष के सिवा क्या कुछ और भी संसार में है, जिसे देखने की आज्ञा भगवान दे रहे हैं ? जी हाँ, है। वह है अनागत वस्तु। उसी की ओर भगवान इशारा कर रहे हैं। उस समय संसार में जो-जो वस्तु अपने जिस-जिस रूप में विद्यमान थी वह सब अर्जुन को भगवान के विराट रूप में दीख सकती थी और आगे चलकर उसकी जो दशा होने वाली है- जो इस समय तक नहीं हुई थी, संसार में जो रूप उसका उस समय तक नहीं हुआ था, भावी या अनागत था, वह भी यदि अर्जुन चाहें तो भगवान के देह में देख सकते हैं। यही उक्त पद ʻयच्चाऽन्यद्ʼ का तात्पर्य है। आगे चलकर हुआ भी वैसा ही। अर्जुन ने भगवान के अनेक विकराल मुखों की भयानक दाढ़ों के बीच भीष्म, द्रोण, कर्ण और दु:शासन आदि को पिसते हुए देखा था। यह बात उस समय तक संसार में विद्यमान नहीं थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 11। 7
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