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जि– अच्छा ! वेदान्तशास्त्र में जो व्यष्टि और समष्टि भाव से स्थूल, सूक्ष्म और कारण-देह का विचार पाया जाता है, वह भी क्या जीवदेह है ?
व–निश्चय ही। व्यष्टिभाव से स्थूल आदि देह का अभिमानी जीव वैश्वानर, तैजस और प्राज्ञ के नाम से कहा जाता है। समष्टिभाव का अभिमान रहने से विश्व, हिरण्यगर्भ और ईश्वर ये तीन नाम दीये जाते हैं। परमार्थत: दोनों ही जीव हैं। यहाँ जिसे ‘ईश्वर’ कहा गया है, यह भी नित्य ईश्वर नहीं है। कार्य ईश्वर हैं। तत्त्व-दृष्टि से ये भी जीव ही हैं। ब्रह्मादि त्रिमूर्ति इन्हीं की हैं– ये भी त्रिगुण सम्बन्धी हैं। नित्य ईश्वर त्रिगुणातीत है– विशुद्ध या अप्राकृत सत्त्रवगुण को आश्रय करके वे आत्मप्रकाश करते हैं। विशुद्ध सत्त्व नित्य वस्तु होने से परमेश्वर की उपाधिभूत देह भी नित्य और अप्राकृत है। इस विषय की क्रमश: आलोचना की जायेगी।
जि– तब क्या भगवान के व्यष्टि-समष्टि विभाग नहीं हैं, उनके देह भी नहीं है ?
व– इसमें क्या सन्देह है ? अच्छा, अब तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देता हूँ, मन लगाकर सुनो। शुद्ध जीव भगवान का अंश है; नित्य, अव्यक्त (अतीन्द्रिय), आनन्दरूप, स्वप्रकाश, चिदात्मक, निरवयव और निर्विकार है। जीव का परिमाण अणुमात्र है– परन्तु अणु होने पर भी वह स्वगुण ज्ञान के द्वारा सर्वत्र व्यापक है। ज्ञान इसके आश्रित है। आत्मा का जैसे स्वरूप है वैसे ही उसका ज्ञान भी नित्य, अजड़, आनन्दरूप द्रव्यविशेष है। प्रत्येक जीव का स्वरूप जीव भाव से पृथक है, परन्तु वह पार्थक्य समझाया नहीं जा सकता। जब कुछ भी औपाधिक भेद नहीं रहता तब भी वह पार्थक्य लुप्त नहीं होता। किन्तु उस स्वरूप की अभिव्यक्ति भगवान की विशेष कृपा बिना नहीं होती।
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