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श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण का अवतार-प्रयोजन तथा परत्व
जन्म, कुल, ऐश्वर्य, विद्या और धन आदि के मद से उन्मत्त हुए पुरुष आपको नहीं देख सकते, क्योंकि धनादि के मद से मदान्ध पुरुषों को तो अपने बड़प्पन के घमण्ड के कारण ‘श्रीकृष्ण, गोविन्द’ आदि परमपावन श्रीभगवन्नामों का उच्चारण करने में भी संकोच होता है। अतः- नमोऽकिंञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये। मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम्। हे प्रभो ! मैं तो आपको काल स्वरूप, ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्र आदि के नियामक ईश्वर, आदि अन्त से शून्य, सबके प्रभु और सब जगह समान भाव से व्याप्त मानती हूँ। यदि आप कहें कि मैं तो अर्जुन का सारथी हूँ फिर मेरा सर्वत्र समान भाव कैसे हो सकता है? सो ऐसी बात नहीं है, स्वयं आपमें किसी प्रकार की विषमता नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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