श्रीकृष्णांक
श्रीराधिका जी का उद्धव को उपदेश
हे वत्स ! जो कर्म कृष्णार्पण कर दिया जाता है अथवा जिससे श्रीकृष्णचन्द्र की प्रसन्नता बढती है वही सर्वोत्तम है। प्रीति और विधिपूर्वक संकल्प करके जो कर्म किया जाता है वह परम मंगलमय और धन्य है। उससे परिणाम में अत्यन्त सुख मिलता है। श्रीकृष्ण के लिये व्रत और तपस्या करना, भक्तिपूर्वक उनका पूजन करना तथा उनके उद्देश्य से उपवास करना– ये सब उनकी दास्यरति के बढ़ाने वाले हैं। इस दास्यरति की महिमा कहाँ तक कही जाये ? समस्तपृथिवीदानं प्रादक्षिण्यं भुवस्तथा । सम्पूर्ण पृथिवी का दान, त्रिभुवन की परिक्रमा, समस्त तीर्थों का स्नान, समस्त व्रत और तप, सम्पूर्ण यज्ञ-यागादि, सर्वस्व दान का फल, समस्त वेद-वेदांगों का पढना और पढाना, भयभीत की रक्षा करना, अत्यन्त दुर्लभ तत्वज्ञान का उपदेश करना, अतिथियों का सत्कार करना, शरणागत की रक्षा करना, समस्त देवताओं का पूजन और वन्दन करना, मंत्र-जाप करना, पुरश्चरण आदि के सहित ब्राह्मणों को भोजन कराना, गुरु की सेवा शुश्रुषा करना तथा भक्तिपूर्वक माता-पिता का पोषण करना ये समस्त शुभकर्म श्रीकृष्णचन्द्र की दास्यरति की सोलहवीं कला के समान भी नहीं हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ब्र. वै. पुराण 4। 17। 16-20
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