श्रीकृष्णांक
मोक्ष-संन्यासिनी गोपियां
गोपी-प्रेम विलक्षण है, उसमें ‘श्रृंगार’ है पर ‘राग’ नहीं है, ‘भोग’ है पर ‘अंगसंयोग’ नहीं है, आसक्ति है पर अज्ञान नहीं है, वियोग है पर विछोह नहीं है, क्रन्दन है पर दु:ख नहीं है, विरह है पर वेदना नहीं है, सेवा है पर अभिमान नहीं है, मान है पर धैर्य नहीं है, त्याग है पर संन्यास नहीं है, प्रलाप है पर बेहोशी नहीं है, ममता है पर मोह नहीं है, अनुराग है पर कामना नहीं है, तृप्ति है पर अनिच्छा नहीं है, सुख है पर स्पृहा नहीं है, देह है पर अहं नहीं है, जगत है पर माया नहीं है, ज्ञान है पर ज्ञानी नहीं है, ब्रह्म है पर निर्गुण नहीं है, मुक्ति है पर लय नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण और गोपियों की यह परम भाव की रासलीला नित्य है, प्रत्येक युग में है, आज भी होती है, प्रत्येक युग के अधिकारी संतों ने इसे देखा है, अब भी अधिकारी देखते हैं, देख सकते हैं।
यदि इस प्रकार के प्रेम की तनिक भी झांकी देखकर धन्य होना चाहते हो, यदि इस अचिन्त्य प्रेमार्णव का कोई एक बिन्दु प्राप्त करना चाहते हो तो भोग और मोक्ष की अभिलाषा को छोड़ दो। श्रीकृष्ण में अपना चित्त जोड़ दो, प्राण खोलकर रोओ, उनके नाम और रूप पर आसक्त हो जाओ। बेच डालो अपना सव कुछ उनके एक रूपबिन्दु के लिये, सर्वस्व निछावर कर दो उनके चरणों पर, लगा दो अपना तन, मन, धन उनकी सेवा में, सदा के लिये अपना सम्पूर्ण आत्मसमर्पण कर दो। जदपि जसोदा नंद अरु ग्वालबाल सब धन्य । -रसखानिजी
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |