श्रीकृष्णांक
मोक्ष-संन्यासिनी गोपियां
इसके बाद भगवान ने अपना गोपीरूप दिखलाकर उद्धव का भ्रम दूर किया – गोपीरूप दिखाइ तबै मोहन जारी । यह तो कवि की कल्पना है। गोपी प्रेम तो इससे बहुत ऊँचा था। कुछ महानुभावों की धारणा है कि गोपियों का भगवान के प्रति वही प्रेम था, जो कान्ता स्त्री का अपने स्वामी के प्रति होता है। कुछ सज्जन कहते हैं कि यह बात नहीं है। जैसा परकीया परायी स्त्री का प्रेम अपने जार के प्रति होता है वैसा प्रेम गोपियों का था। मेरी समझ से ये दोनों ही उदाहरण गोपीप्रेम के लिये पूरे लागू नहीं होते। यह सत्य है कि कान्ताभाव में शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य का समावेश हो जाता है। पतिव्रता स्त्री अपना नाम, गोत्र, जीवन, धन-धर्म, सभी कुछ पति के अर्पण कर प्रत्येक चेष्टा पति के लिये ही करती है और पति के सम्बन्धियों की सेवा में शान्तभाव, पति की सेवा में दास्यभाव, पति के साथ परामर्श करने में सख्यभाव और भोजनादि कराने में वात्सल्यभाव रखती है तथा अपना शरीर और मन सब भाँति नि:संकोच रूप से पति के अर्पण कर देती है परन्तु भगवान के प्रति गोपियों के समान केवल प्रेममूर्ति शुद्ध भागवत जीवों का जो प्रेम होता है, वह तो कुछ विलक्षण ही होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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