श्रीकृष्णांक
मोक्ष-संन्यासिनी गोपियां
चेला बनते ही उन्होंने मथुरा का राजवेश त्यागकर गोपी पद पंकज पराग गोप का वेश धारण कर लिया और उसी वेश में वे भगवान के पास पहुँचे, इस समय उन्हें यह होश नहीं था कि मैं यदुवंशी उद्धव हूँ, वे अपने को गोपीदास समझते थे, जगत को भी इसी रूप में देखते थे, अतएव भगवान श्रीकृष्ण को भी वे यदुनाथ कहना भूल गये और गोपीनाथ के नाम से ही पुकारा– ऊधो यदुपति पै पगये किये गोप को भेस ।। उद्धव कहने लगे– हे गोपाल, हे गोपीनाथ, एक बार चलो न व्रज को ? उस प्रेमलोक को छोड़कर यहाँ इस रूखी सूखी मथुरा में कहाँ आ बसे ? बृन्दावन सुख छांडिकै, कहाँ बसे हो आय ? उद्धव भगवान के पैर पकड़कर फुफकार मारकर रोने लगे– भगवान भी प्रेमविह्वल हो जमीन पर गिर पड़े और फिर अपने पीताम्बर से आंसू पोंछते हुए बोले– ‘वाह, तुम तो खूब योग सिखाकर आये उद्धव !’ सूर श्याम भूतल गिरे रहे नैन जल छाइ । भगवान ने कहा– उद्धव ! देखा, तुमने गोप बालाओं का निर्मल, विशुद्ध, अहैतुक और अनन्य प्रेम ! इसीलिये मैं उन्हें क्षणभर नहीं भूल सकता ! धन्य ! इसी प्रसंग में व्रज-रस-रसीले श्रीनन्ददास जी कहते हैं– |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |