श्रीकृष्णांक
मोक्ष-संन्यासिनी गोपियां
नाहिंन रह्यो हिय में ठौर । तुम्हीं बताओ, क्या किया जाय ! वह तो हृदय में गड़ गया है, और रोम-रोम में ऐसा अड़ गया है कि किसी तरह निकल ही नहीं सकता, भीतर भी वही और बाहर भी सर्वत्र वही ! उर में माखन चोर गडे । उद्धव चकित हो गये। सबसे अधिक आश्चर्य तो उन्हें इस बात का हुआ, जब गोपी-कृपा से उन्होंने श्रीगोपीनाथ को गोपियों के बीच में उनकी आंखों के सामने सर्वत्र देखा– महात्मा सूरदास जी कहते हैं– लखि गोपिन को प्रेम नेम ऊधो को भूल्यो । उद्धवजी की विचित्र दशा हो गयी, आये थे ज्ञान देकर उनका विरहानल बुझाने– गुरु बनकर उन्हें योग की दीक्षा देने, पर अब तो चेले बनकर पुकार उठे– उपदेसन आयौ हुतो, मोहिं भयो उपदेस । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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