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हठीले हृषीकेश ! तुम्ही बतलाओ, मैं क्या करूँ ? क्या सदा इसी प्रकार तड़पा करूँ ? क्या मेरा उद्धार कभी न होगा ? क्या मेरा जीवन यों ही जायगा। अब नहीं रहा जाता, राधारमण ! बस, बहुत हो चुका, पापों का पर्याप्त प्रायश्चित हो चुका। जांच भी खूब हुई, रहने भी दो अब। जांच की आंच और नहीं सही जाती तपस्या के ताप से अब बचाओ। हो चुकी परीक्षा तुम्हारी। अब शीघ्र दर्शन देकर मेरी तृष्णा को तृप्त करो। एक बार तिरछी चितवन से मेरे मृतप्राय शरीर में जान डाल दो। नहीं तो सच मानना, तुम्हारी परीक्षा ही परीक्षा में ये प्राण पखेरू उड़ जायँगे। क्या कहा ? ‘प्राणों की परवाह मत करो। प्रेम का पुजारी सदा ही प्राणों को हथेली पर लिये फिरा करता है’। अच्छी बात है, नहीं रखूँगा, परवाह प्राणों की, पर तुम आओ जल्दी। नाथ ! तुमने बड़े बड़े पापियों का उद्धार किया। बड़े-बड़े नराधमों को सुगति दी, बड़े-बड़े पिशाचों को पुण्यधाम प्रदान किया, बड़े-बड़े पामरों को क्या कहा ! ‘तुम्हारी परनिन्दा वृत्ति अब तक नहीं गयी ?’ बिलकुल ठीक कहते हो, तुम्हारी इस प्रकार महिमा का वर्णन करते हुए मैं वास्तव में परनिन्दा का पात कर रहा हूँ। अपने को इन लोगों से कम पापी प्रकटकर रियायत का अधिकार जतलाता हूँ। मुझे क्या मालूम कौन कितना पापी था और उसके पाप का क्या रहस्य है ? इसलिये जगदीश्वर, तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। ‘काजी क्यों बदले ? शहर के अंदेशे से’ यह कहावत चरितार्थ करने से क्या लाभ ? मुझे तो सिर्फ अपने काम से काम।
क्या कहा ? तुम इतने बड़े स्वार्थी हो ! बिलकुल ठीक कहते हो परमात्मन ! वास्तव में मेरा इस प्रकार का भाव स्वार्थ का द्योतक नहीं है तो और क्या है ? अच्छा, तो क्षमा करो करुणा के आकर। अपनी कृपा का कोष खोल दो सबके लिये। सभी उसकी जीचा ही लूट करें। बहा दो दया का दरिया सबके लिये। सभी अबाधरूप से उसमें गोते लगाकर भव-बन्धन से मुक्त हो जाये। क्या कहा ? ‘लीला में विघ्न डालते हो ? व्यवस्था में हस्तक्षेप करते हो ? सबका उद्धार करके संसार को प्रलयलीन कर दिया जाय क्या ?’ ठीक बात। मैं बड़ा अज्ञानी हूँ देव ! मैं भला सृष्टिचक्र की चाल को क्या समझूँ। मुझे क्या पता, जगत के इस रंगमंच पर किस पात्र का पार्ट समाप्त हो गया और किसका कितना बाकी है। यदि परमात्मा और पुण्यात्मा दोनों के साथ एक सा व्यवहार किया जाय, दोनों को एक साथ परमगति दे दी जाये तो फिर पाप और पुण्य में अन्तर ही क्या रह जाये ? अच्छा, तो जगन्नायक मेरी यह प्रार्थना है कि जितने तुम्हारे भक्त हों, उन्हें सद्गति दे दो और अभक्तों को इसी अन्धकार में पड़ा रहने दो।
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