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श्रीकृष्ण ने आर्य जितना को अधिक अन्तर्मुख बनाया है, अधिक आत्मपरायण बनाया है। भोग और त्याग, गृहस्थाश्रम और संन्यास, प्रवृत्ति और निवृत्ति, ज्ञान और कर्म, इहलोक और परलोक इत्यादि सब द्वन्द्वों का विरोध ध्यासरूप है, सबमें एक ही तत्व रहा है, अपने जीवन और उपदेश से श्रीकृष्ण ने यह बात सिद्ध करके बता दी है। आर्य जीवन पर अधिक से अधिक प्रभाव तो श्रीकृष्ण का ही है, फिर भी इस प्रभाव का स्वरूप ठहराना कठिन है। जिस प्रकार अत्यन्त सरल भाषा में लिखी गयी भगवद्गीता के अनेक अर्थ किये गये हैं, उसी प्रकार से वर्णन होता रहा है जिस तरह वाल्मीकि रामायण के रामचन्द्र और तुलसी रामायण के रामचन्द्र में महदन्तर है, उसी तरह का महाभारत का श्रीकृष्ण, भागवत का श्रीकृष्ण, गीतगोविन्द का श्रीकृष्ण, चैतन्य महाप्रभु का श्रीकृष्ण और तुकाराम बुवाका श्रीकृष्ण एक होते हुए भी भिन्न हैं। आजकल के जमाने में भी नवीनचन्द्र सेन का श्रीकृष्ण बंकिमचन्द्र के श्रीकृष्ण से भिन्न है, गान्धीजी का श्रीकृष्ण तिलक के श्रीकृष्ण से जुदा है और अरविन्द घोष का श्रीकृष्ण तो सबसे ही न्यारा है। ऐसे सुलभ और दुर्लभ, एक और अनेक, रसिक और वैरागी, बागी और लोकसंग्रहक, प्रेमल और निष्ठुर, मायावी और सरल श्रीकृष्ण की जयन्ती किसी प्रकार मनायी जाय यह ठहराना बड़ा कठिन है।
श्रीकृष्ण का चरित्र उनके जीवन के समान ही व्यापक है। श्रीकृष्ण ने दुनिया के हर एक स्थिति का भोग किया है। हर एक स्थिति के लिये श्रीकृष्ण ने आदर्श बताया है। श्रीकृष्ण का बचपन अत्यन्त रम्य है। गायों और बछडों पर उनका प्रेम, वनमालाओं का शौक, मुरली का मोह, बालमित्रों से स्नेह, मल्लविद्या विषयक दिलचस्पी, बस अद्भुत और अनुकरणीय है। छोटे बालक अवश्य ही उनका अनुकरण करें। सुदामा के चरित्र को ध्यान में रखकर जन्माष्टमी के दिन हम अपने दूर रहने वाले मित्रों को दो दिन साथ रहने और श्रीकृष्ण का गुणगान करके खेलने के लिये बुलावें तो बहुत ही उचित होगा। श्रीकृष्ण के मन में बड़े या छोटे, गरीब या अमीर, ज्ञान या अज्ञानी, रूपवान या कुरूप का कोई भेद न था। गायें चराने जाते तब श्रीकृष्ण सब साथियों से कहते कि हरएक अपने-अपने घर से खाने को लेता आवे। फिर वे सब मिलकर सबका भोजन इकट्ठा करके प्रेम से वन भोजन करते थे।
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