श्रीकृष्णांक
कृष्णस्तु भगवान्स्वयम
इस अपने कर्तव्य के पूरा करने में धर्म के खयाल से प्रेरित होकर केवल जगत् के कल्याण के लिये ही दुष्टों के संहार और सज्जनों की रक्षा के द्वारा धर्म की स्थापना करते हुए और- अपने इन उपदेशों का आदर्श अपने आचरण से दुनिया को दिखाते हुए, शत्रुओं के साथ भी रागद्वेषरहित और निष्पक्ष रहकर ही व्यवहार किया था, इसी से नरकासुर को मारने तथा भीमसेन के द्वारा जरासन्ध को मरवा डालने के बाद श्रीभगवान ने उनके राज्यों को स्वयं न छीनकर उन्हीं के पुत्रों को प्रजा संरक्षणरूपी धर्म का उपदेश देकर आपने हाथों गद्दी पर बैठाया तथा उनका सब प्रकार से पालन-पोषण और सहायता की। कर्तव्य-विवश हो जिनको श्रीभगवान ने मारा, द्वेष न करते हुए उनको भी सद्गति प्रदान काने का नियम तो आप पालते ही रहे (इससे सुदर्शनचक्रधारी और मुरलीधारी की एकता सिद्ध है।) (15) गोपियों के प्रति- व्रजवासी रसिकराज श्रीभगवान ने बचपन में गोपियों के साथ की हुई अपनी लालाओं में वात्सल्य, सख्य, दास्य, शान्त और माधुर्यादि भावों का उज्ज्वल तथा आदर्श परिचय दिया था। (16) सारी दुनिया के प्रति- राजसूययज्ञ के प्रकरण में श्रीभगवान ने सब लोगों को अनेक प्रकार के अधिकार देकर या कार्य बाँटकर अपने लिये तो- ‘कृष्णः पादावनेजने’ अभ्यागत-अतिथियों के चरण धोने का ही काम लिया जिससे विष्णुसहस्रनाम के बताये हुए- अमानी मानदो मान्यः’ अर्थात् स्वयं अहंकाररहित परन्तु औरों को मान देने वाला अतएव माननीय) अपने इन तीन नामों को सफलसेवाधम।[1] का परमोत्तम आदर्श दिखाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ Ideal of Service
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