श्रीकृष्णांक
चक्रपाणि
अर्जन तेज से भयभीत हुआ पुन: कहता है – द्रष्ट्राकरालानि च ते मुखानि अहो ! देवेश ! आपकी विकराल दाढें, अहो ! प्रलयकाल की प्रचण्ड अग्नि के समान आपके प्रदीप्त मुख को देखकर मुझे तो दिक्ज्ञान भी नहीं रहा, अतएव हे जगन्निवास ! आप प्रसन्न हूजिये, और हे उग्ररूपधारी देवेन्द्र ! आप कौन हैं मुझे बतलाइये तो। भगवान उस ही रूप में कहते हैं– कालोअस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो मैं काल हूँ। लोकों का नाश करने के लिये बढ़ रहा हूँ और यहाँ इन लोकों को विनष्ट करने के लिये प्रवृत्त हुआ हूँ। अरे ! तेरे बिना भी ये विनाश को प्राप्त होंगे। इसलिये– उत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुंक्ष्व राज्यं समृद्धम् ।। हे विश्वमूर्ते ! वही किरीट, गदा और चक्र धारण कीजिये। हे सहस्त्रबाहों ! मैं तो वही विश्वमोहन चतुर्भुज घनश्याम रूप देखना चाहता हूँ। पाठक ! यह है चक्रपाणि का भक्तमन भावन त्रयताप नशावन दिव्य रूप। इसकी शरण में आने पर कौनसा बन्धन रह सकता है ? अतएव आओ ! सच्चे स्वराज्य की प्राप्ति के लिये महाप्रभु चक्रपाणि की शरण में प्राप्त हों। पुन: संसाररूपी कुरुक्षेत्र से वे अपने-आप ही विजय के साथ ले निकलेंगे। क्योंकि रथ हांकने में तो प्रसिद्ध गुरु हैं। हां, आवश्यकता है शरीररूपी रथ में जुडे इन्द्रियरूपी घोड़ों के मुख में पड़ी मनरूपी डोर को उनके हाथ में सौंप देने की। फिर जय जी जय है। बोलो चक्रपाणि की जय ! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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