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आतिशी-शीशा और साधारण शीशा दोनों को धूप में रख दीजिये और दोनों पर एक रूप में सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ने दीजिये। एक में निकली किरण कपड़ा और करीष (शुष्क गोमय) आदि पर पड़कर क्षणभर में उसे जला देगी, परन्तु दूसरी कुछ न कर सकेगी। कडाही की तली पर आतिशी शीशे के द्वारा डाले गये प्रकाश की गरमी से, बिना अग्नि के, पूरी पकते हमने स्वयं देखा है। हमारे मित्र स्वर्गीय पं. श्रीकृष्णजी जोशी तो इसी प्रकार बनाये अपने ‘भानुप्रताप’ यंत्र से चूने का भट्टा पका देने का दावा करते थे। सूर्यकान्तमणि पर सूर्य किरणें पड़ने से अग्नि पैदा होती है और चन्द्रकान्तमणि पर चन्द्रमा की किरणें पड़ने पर स्वच्छ जल टपकता है, परन्तु गीले गोबर पर पड़कर ये दोनों व्यर्थ हो जाती हैं। आप आईना, पानी, तेल और तलवार इनमें अपना मुंह देखिये। सब में कुछ न कुछ भिन्नता दीखेगी, यद्यपि मुख वही है। इसी प्रकार सत्वप्रधान माया में पड़ा ब्रह्म का प्रतिबिम्ब ज्ञान, आनन्द, धैर्य और वशीकरण सामर्थ्य के कारण प्रकृति का अधिष्ठाता, भूत-भविष्य का ज्ञाता, दु:ख और अज्ञान में फँसे प्राणियों का उद्धर्ता तथा लोक का नियन्ता हुआ करता है। इसी का नाम ईश्वर या अवतार है।
साधारण रेल-यात्रियों के साथ ही गार्ड भी चलता है, परन्तु उसके ज्ञान और अधिकार में बहुत भेद रहता है। वह अगली-पिछली लाइन को बराबर देख सकता है, आने वाली विपत्ति को पहले से ही समझ सकता है। ट्रेन को विपत्ति में पड़ने से बचा सकता है, उसे रोक भी सकता है और तीव्र गति से चलाने का आदेश भी दे सकता है। यात्रियों को सकुशल यथास्थान पहुँचाने की जिम्मेदारी भी उसी पर है। साधारण रेलगाडियों की स्टेशन मास्टर आदि की आज्ञानुसार चलना या रुकना पड़ता है, परन्तु लाटसाहब की स्पेशल के आगे इन्हें सिर झुकाना पड़ता है। वह इनकी आज्ञानुसार नहीं चलती, बल्कि इन्हें उसकी सुविधा और ऊपर की आज्ञा के अनुसार सब प्रबन्ध करना पड़ता है। यदि ये लोग वहाँ अपने अधिकारों की अकड़ दिखायें तो अवश्य इनके कान मल दिये जायँ। श्रीकृष्णावतार में अपने-अपने अधिकारों के बल पर अटकने वाले इन्द्र आदि देवताओं की बात से इसका मिलान कर देखिये।
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